मैं किसी हवा-हवाई कल्पना के आधार पर नहीं कह रही हूं। ये बचपन से लेकर आज तक सैकड़ों लोगों से बातचीत, डिसकशन, मेरे फेसबुक पोस्ट पर आए कमेंट और इनबॉक्स मैसेजेज के आधार पर निकाला गया नतीजा है, जिसे प्रूव करने के लिए मेरे पास बहुत ठोस प्रमाण हैं।
नतीजा ये है कि ये सभी चीजें आपस में जड़ी हुई हैं।
1- औरतों की आजादी और बराबरी का विरोध करने वाले और फीमेल वर्जिनिटी को आसमान पर बिठाकर उसकी पूजा करने वाले अधिकांश लोग समाज की सो कॉल्ड ऊंची, दबंग जातियों के हैं।
2- औरतों की आजादी का विरोध करने वाले अधिकांश ऊंची, दबंग जातियों के लोग अयोध्या या देश के किसी भी कोने में मंदिर बनवाए जाने के आइडिया को लेकर लहालोट हो जाते हैं।
3- औरतों की आजादी के विरोधी और मंदिर समर्थक अधिकांश ऊंची, दबंग जातियों के लोग मोदी सपोर्टर हैं।
4- औरतों की आजादी के विरोधी, मंदिर समर्थक और मोदी सपोर्टर अधिकांश ऊंची, दबंग जातियों के लोग आरक्षण और दलितों के अधिकारों के घोर खिलाफ हैं।
5- औरतों की आजादी के विरोधी, मंदिर समर्थक, मोदी सपोर्टर और आरक्षण विरोधी अधिकांश ऊंची, दबंग जातियों के लोग मुसलमानों को छठी का दूध याद दिलाना चाहते हैं।
ये सारी चीजें एक-दूसरे से ऐसे जुड़ी हैं। इस कदर कि इन्हें अलग करके देखना मुश्किल है।
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इस साल सु्प्रीम कोर्ट द्वारा सीनियर एडवोकेट बनाई गई मीनाक्षी अरोड़ा का मैंने पिछले दिनों इंटरव्यू किया था। उन्होंने एक इंटरेस्टिंग बात कही कि शादी के 27 सालों में आज तक उनके पति ने कभी उनसे एक गिलास पानी भी नहीं मांगा। जो भी जरूरत हो, खुद उठकर लेते हैं। वो बोलीं कि कई बार अगर मैं खुद किचन में हूं या घर में इधर-उधर टहल रही हूं तो भी मुझसे नहीं कहते। खुद ही उठेंगे। मैं कहूं कि अरे तुम क्यों उठे, मुझे ही बोल देते तो उनका जवाब होता है – “You are wife, not my maid.”
और सबसे इंटरेस्टिंग बात पता है क्या है।
उनके पति जर्मन हैं, इंडियन नहीं।
वरना भारतीय पुरुष तो दिन भर अपनी पत्नियों को ऑर्डर ही लगाते रहते हैं।
– ये लाओ
– वो लाओ
– जरा पानी देना
– एक कप चाय मिलेगी
– जरा मेरा चश्मा उठा दो
– आज आलू के पराठे खाने का मन है
– जरा नारियल तेल तो देना
– अरे मेरी बनियान कहां रखी है
– तौलिया कहां चला गया
– इनकम टैक्स के पेपर दिए थे तुम्हें रखने को। कहां हैं।
जवानी से शुरू होते हैं और बुढ़ापे तक खत्म नहीं होते इंडियन हसबैंड के ऑर्डर। तौबा है इनसे तो।
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हमारे देश ने अभी ऐसे मर्द प्रोड्यूस ही नहीं किए हैं, जो एक आजाद, आत्मनिर्भर, इंटेलीजेंट, अपने फैसले खुद लेने वाली और अपनी शर्तों पर, लेकिन बहुत ईमानदारी से डूबकर प्रेम करने वाली स्त्री को समझ सकें, झेल सकें।
हिंदुस्तानी मर्दों को अभी भी अपनी अम्मा की कार्बन कॉपी चाहिए।
“हां जी”
“आई जी”
“खाना खा लीजिए जी”
“और पराठा लीजिए जी”
“आज क्या सब्जी खाएंगे”
“ये लीजिए आपकी बनियान”
“आपका जूता ये रहा”
“तौलिया, अभी लाई”
“अरे आप अपना मोबाइल भूले जा रहे हैं”
“आपका टिफिन बैग में डाल दिया है”
“ये तो बिलकुल छोटे बच्चों की तरह हैं”
“आपके कपड़े प्रेस होकर आ गए हैं”
“अरे छोडि़ए ना”
“जाइए भी”
उफ। भागो…………….
और ये कोई इत्तेफाक नहीं है …………सोच समझ कर बनायीं गयी व्यवस्था का हिस्सा है जिसमे ऊँची जाती एवं वर्ग , हिंदुत्व के हिमायती , फासीवादी, जातिवादी पुरुषवादी लोगों का हित एक दुसरे से ऐसे जुड़ा है जैसे ताश के पत्तो के महल में एक पत्ते का अस्तित्व दुसरे पत्ते पर निर्भर करता है .…अफ़्सोस इस व्यवस्था को गिरना इतना आसन नहीं जितना पत्तो के महल को गिरना