कल सुबह श्यामल दादा का फोन आया, रविवार को मई दिवस के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए। श्यामल दा, हालांकि रहने वाले पश्चिम बंगाल के हैं लेकिन नोएडा और दिल्ली दोनों के बीच बसी खोड़ा नाम की प्रवासी मजदूरों की बस्ती में उनके बीच काम करते हैं…वाकई गंभीर काम। एक पत्रिका भी निकालते हैं मजदूर संदेश नाम से और तमाम बार पुलिस, नेताओं और उद्योगपतियों का निशाना भी बनते रहे हैं। दादा साइकिल से चलते हैं और उनको पहली बार में देख कर हमारे नए बनते उत्तर आधुनिक (सिर्फ दिखने में) और तथाकथित संभ्रांत समाज का कोई आदमी अंदाज़ा नहीं लगा सकता है कि वो इतना अहम और बड़ा काम कर रहे हैं। श्यामल दादा का आग्रह इससे पहले भी कई बार हुआ कि उनके कार्यक्रमों में आऊं लेकिन कभी जा नहीं सका, दरअसल वो चाहते हैं कि मैं उन कार्यक्रमों में जाकर कुछ बोलूं…उनको लगता है कि मेरे बोलने से फैक्ट्री श्रमिकों का हौसला बढ़ेगा, वो कुछ सीख पाएंगे। लेकिन दरअसल उन कार्यक्रमों में मेरे न जाने के पीछे की बड़ी वजह मेरी शर्मिंदगी रही कि आखिर वहां जाकर मैं क्या बोलूंगा, क्या कहूंगा उन से जिनकी मेहनत, साहस और जूझने का जज़्बा हम जैसे लोग कभी नहीं ला पाएंगे। मैं उनके लिए कविता कहता हूं, लेकिन खुद कविता बनना तो उनके ही बस की बात है।
श्यामल दा जैसे लोग उन के बीच ही रहते हैं, उनके साथ सोते हैं, उनके साथ खाते हैं, उनके ही साथ जीते और मर जाते हैं, वो रेल की सामान्य श्रेणी में भेड़-बकरियों सरीखा भर कर उनके साथ ही सफ़र करते हैं और लड़ाई ज़िंदगी भर-मरते दम तक जारी रखते हैं। लेकिन मैं कैसे जाकर उनको समझा-सिखा सकता हूं, जो दुनिया को बनाते ढालते हैं और मुझे हर रोज़ कुछ न कुछ नया सिखा देते हैं। हर बार श्रमिकों के बारे में बात करते वक्त मेरी आंखों के सामने कभी पुलिस वालों की लाठी खाते और अपनी रेहड़ी पलट दिए जाने पर उदास आंखों से बिखरे सामान को देखते वो दिल्ली-नोएडा की सड़कों पर बेल का शर्बत और सत्तू बेचते वो लोग आ जाते हैं, जो एक छोटे से कमरे में और 8 लोगों के साथ रहते हैं, कभी सैकड़ों किलो का बोझ ठेले पर रख उसे हाथों से खींचते हाथगाड़ी वाले दिखते हैं, कभी फैक्ट्री के हूटर पर 10 मिनट में ही खा-पी लेने और लघुशंका समेत सारे दुखदर्द से निजात पाने की जल्दबाज़ी में लगे फैक्ट्री मजदूर दिखते हैं, कभी 25 कपड़े सिल कर 25 रुपए ही कमाने वाली औरतें दिखती हैं, तो कभी रिक्शे में अपना ही प्रतिरूप लादे खींचते रिक्शेवाले। मज़े की बात ये है कि इतने ही पैसे में ये हंस रहे हैं, खा रहे हैं, लड़ रहे हैं, घर चलाते हैं और जब तक हो सकता है बच्चों को पढ़ाते भी हैं…हां ज़िंदगी को लड़ के उसे जीत रहे हैं। क्या आप और मैं ऐसा कर सकते हैं, निसंदेह नहीं। लेकिन फिर सवाल कि क्या इनकी ज़िंदगी बदलेगी? हां, बेशक बदलनी चाहिए, लेकिन कैसे बदलेगा ये सब…कैसे तय होगा कि न्यूनतम मजदूरी की सीमा बढ़े, जबकि अभी ही सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी इनको नहीं मिलती। कैसे इनको बीमा मिलेगा, कैसे तय होगा कि इनके बच्चे शिक्षा से वंचित न रह जाएं? कैसे तय होगा कि काम की जगह से सड़क और समाज तक इनको सम्मान से जीने का अधिकार मिले? कैसे तय होगा कि ये अपराध की ओर न मुड़ें और अपराध इऩको ढूंढ न ले? ज़ाहिर है इसके लिए लम्बी लड़ाई लड़ने की ज़रूरत है…लेकिन कैसे?
दरअसल लड़ाई दुनिया में मानव सभ्यता के विकास क्रम के साथ ही शुरु हुई थी, हालांकि शुरुआत में समस्या इतनी भयावह और मानसिकता इतनी कुरुप नहीं रही होगी, ये बदलाव हमने तरक्की के साथ हासिल किया है। लड़ाई सिर्फ एक ही है, एक ओऱ से रोटी के लिए, दूसरी ओर से रोटियां हड़प कर उससे ताकत हासिल करने के लिए। इस लड़ाई में तमाम बार जीत-हार का सिलसिला चला, अनेक जगह क्रांतियां हुई, लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से आए नव उपनिवेशवाद और पूंजीवाद के नए रूप ने मार्क्स की ज़्यादातर बातों को सच किया। पूंजीवाद ज़्यादा आकर्षक रूप में लौटा और आवश्यक्ताएं पैदा की जाने लगीं, लेकिन खूबसूरत पैकेज और चेहरे के पीछे शोषण का एक ज़्यादा चालाक खेल शुरु हुआ, जिसने क़ानूनों और नैतिकता दोनों की धज्जियां उड़ा कर रख दीं। आज की स्थिति कहीं ज़्यादा बुरी इसलिए है क्योंकि इससे लड़ाई अब कहीं ज़्यादा मुश्किल है। पूंजीपति और सत्ता तंत्र का अवैध नेक्सस जानता है कि श्रमिकों-गरीबों की एकता उसके अस्तित्व के लिए घातक है, इसलिए बड़ी चालाकी से सब कुछ संवारने के नाम पर बिखरा दिया गया है। पूंजीपतियों के इशारों पर नाचने वाले राजनैतिक दलों ने अपने मजदूर संगठन खड़े कर दिए, जो विडम्बना ही है क्योंकि ये संगठन अंततः किसके इशारों पर काम करेंगे, ये समझना कोई अंतरिक्ष विज्ञान नहीं है। ऐसे में ज़रूरतें भी बदली हैं और काम करने के तरीके भी बदलने ही होंगे।
भारत में वामपंथ की बड़ी असफलता के पीछे बड़ा कारण ये ही रहा कि हम तरीके बदलने में नाकाम रहे। हम रूस, चीन, वियतनाम और क्यूबा के मॉडलों पर चर्चा करते रहे, बजाय भारतीय मॉडल विकसित करने के। हम ये समझने में नाकाम रहे कि दरअसल विचारधारा हमेशा वही रहेगी, लेकिन तरीके हर बार नए होंगे। बाकी नुकसान वामपंथी संगठनों के बिखराव ने कर दिया, एक छतरी के नीचे आकर लड़ाई करने की ज़रूरत शायद अब समझनी ही होगी। इस देश में मजदूरों के लिए सिर्फ एक बड़े आंदोलन की ही ज़रूरत नहीं है, उससे पहले उसकी ज़मीन तैयार करने की ज़रूरत है और साथ ही मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग के भीतर के भी मौजूद बड़े संवेदनशील तबके को साथ लेने की है। ज़रूरत है स्वयंसेवकों की, जो अपना बहुत कुछ या फिर सब कुछ दांव पर लगा कर इस लड़ाई में साथ आएं, मार्क्स ने कहा था कि दुनिया के मजदूरों एक हो लेकिन साथ आने की प्रक्रिया श्रमिकों गरीबों के लिए हमेशा तब शुरु होती है, जब उत्पीड़न चरम पर होता है। हां, यकीनन अगर अभी तक बड़े आंदोलन हमारे सामने नहीं हैं, तो वजह निसंदेह ये ही होगी कि चरम अभी नहीं आया लेकिन ये भी तय है कि वो करीब है। लेकिन तब तक हम में से सभी को लड़ाई को जिलाए रखना होगा और सही समय का इंतज़ार करना होगा। बहुत सारे लोग इस काम में लगे हैं, बहुतों को आगे आऩा होगा।
कई सारे अहम संगठनों को ये तय करना होगा कि वो अब एक छतरी के नीचे आकर साथ काम करेंगे, और देश भर के श्रमिकों को साथ जोड़ेंगे। लेकिन याद रखिए, एक चालाक षड्यंत्र आपका इंतज़ार कर रहा है, जिसने श्रमिकों को इतना लाचार कर दिया है कि वो रोटी तक को मोहताज हैं, अगर वो एक भी दिन हड़ताल पर चले जाएं। ऐसे में सोचना होगा कि आखिर क्या किया जाए कि वो व्यापक आंदोलन के लिए तैयार हों। हमें पढ़े-लिखे, नौकरीशुदा या किसी तरह के व्यापार में लगे लोगों के अलग अलग स्वयंसेवक समूह तैयार करने होंगे, श्रमिकों के बीच जाकर उनके परिवारों के लिए चिकित्सा सुविधाएं, शिक्षा और जागरुकता के लिए काम करें। हर महीने अपनी कमाई में से एक अंश निकाल कर एक कोश तैयार रखा जाए, जिससे कभी भी किसी को रोटी का मोहताज न रहना पड़े, हड़तालों या आंदोलनों के समय ये कोश श्रमिक साथियों के काम आएगा। हालांकि उससे पहले ये ज़रूरी है कि हम अपने जीवन में उनसे बर्ताव को सुधारें। ये तय करना होगा कि सारा काम क्राउड फंडिंग या चंदे से हो, जिससे आप सरकार या कारपोरेट के पैसे या दान के मोहताज न हों। और जितनी जल्दी हो, इस पर काम शुरु करना होगा।
लेकिन दरअसल मैंने बात यहां से शुरु नहीं की थी, बात तो ये थी कि मैं श्यामल दादा के कार्यक्रमों में क्यों नहीं जाता…दरअसल मेरे भीतर इतना अनैतिक साहस ही नहीं है कि मैं उन कार्यक्रमों में जाकर एक शब्द भी कह पाऊं, जैसी कि दादा को मुझ से अपेक्षा रहती है। उनको लगता है कि मेरे जैसे लोग बहुत काम कर रहे हैं, जो कि दरअसल नहीं है। मेरे जैसा कोई भी लेखक लिखने से ज़्यादा क्या कर सकता है। काम तो दादा जैसे लोग करते हैं, काम कर रहे हैं वो लाखों श्रमिक साथी, जो हड्डियां गला कर जीवन से लड़ रहे हैं, हर रोज़ मर रहे हैं, लेकिन हम से कहीं ज़्यादा ज़िंदा हैं। सही कहूं तो दादा दरअसल हम एक शर्मसार समाज की शर्मिंदा पीढ़ी हैं, इसलिए मैं कभी नहीं आया। मेरी हिम्मत ही नहीं है उन असली ईश्वरों से आंखें मिला पाने की, जो हमारी दुनिया को संवार कर, खुद उजाड़ में रहते हैं। जो हमारे चलते के लिए सड़कें बनाते हैं और फुटपाथ पर सोते हुए हमारी कारों से कुचले जाते हैं। जो हमारे लिए इमारतें बनाकर खुद मड़िया में रह रहे हैं, जिनका उगाया अनाज खा कर हम ज़िंदा हैं और वो खुदक़ुशी कर रहे हैं। जिनकी मेहनत और कुर्बानियों की नींव पर ये आधुनिक दुनिया टिकी है, हम पिछड़ी मानसिकता के अहसानफ़रामोशों की आधुनिक और सभ्य दुनिया…लेकिन वादा रहा कि इस बार आऊंगा, ज़रूर आऊंगा…खोड़ा में उन गलियों में, जहां कभी रहने की हिम्मत नहीं कर पाया…और अब आता रहूंगा, अपने मंदिर में…अपने भगवानों के बीच…
(अगर आपके पास भी समय है तो 5 मई को शाम 5 बजे, खोड़ा कॉलोनी पहुंचे…मुझे फोन करें…मेरा नम्बर है 9310797184)



मई दिवस की शुभकामनायें
इंसा जब पैरों पर खड़े हुए दो हाथ तभी आजाद हुए
इन हाथों की मेहनत से धीर धीरे आबाद हुए
इन हाथों से फल तोड़े थे , इनसे ही गुफा में घर बने
फिर पत्थर के औजार बने और लोहे के हथियार बने
हाथों ने फसले बोई थी हाथों से चुल्हेकार बने
लाखों सालों की मेहनत से इतने सुन्दर ये हाथ बने
बिथोवन का सगीत बना विन्सी जैसे फनकार बने
बुल्ले शाहों की कलम चली सूफी संतो ने दोहे लिखा
पर हाथ अभी ये खाली है कि इन हाथों को काम नहीं
MKSSS, RIGHT TO WORK CAMPAIGN SONG