शोले की तरह भड़क उठता है विद्रोही मन

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क्या कोई रोये और क्योंकर रोये 
किसी अपने को जब मौजूदा बुर्जुआ निज़ाम
मौत की नींद सुला दे किसी ज़ालिम की तरह

कोई जज़्बात नहीं उभरे थे मेरे अंदर 
और अफ़ज़ल का वह कमसिन बच्चा 
उसकी हमराह तबस्सुम भी उसी की तरह 
आंसू थामे रहे होंगे यूँ ही अपने अंदर

शोले की तरह भड़क उठता है विद्रोही मन 
जंग का करता है एलान, फ़तह की खातिर 
या तो फिर सर्द से पत्थर में बदल जाता है 
उसी पत्थर से बनाता है वह यादों के निशाँ 
कोई बेमिसाल इमारत कि रहे याद जहाँ
जाने वाले का कोई खोया या बाकी सा निशाँ

मैं नहीं रोया 
कोई वजह न थी रोने की 
अफ़ज़ल कश्मीरी था 
और मैं हिन्दुस्तानी 
अफ़ज़ल मुस्लिम था 
मैं पैदा हुआ हिंदू घर में 
इतना बस याद है तारीख थी नौ फ़रवरी 
अपने सीने से लगाये मैं लेनिन की वह किताब 
“राज्य और क्रांति” का लिखा है जहाँ सारा हिसाब 
लाल झंडे की गिरह खोल रहा था उस दम

 

लेखक-कवि मनु कांत चंडीगढ़ में रहते हैं। उनकी यह कवित द कश्मीर वाला से साभार। अनुवादः खुर्शीद अनवर

2 thoughts on “शोले की तरह भड़क उठता है विद्रोही मन

  1. बेहतरीन कविता….
    मैं भी नहीं रोया था लेकिन एक हिन्दू होना इसका वजह न था बल्कि एक हिंदुस्तानी होने की खातिर मुझे ऐसे लोगो पे रोना नहीं आया……

  2. “शोले की तरह भड़क उठता है विद्रोही मन
    जंग का करता है एलान, फ़तह की खातिर ”
    ——————————————–
    कितने ही विद्रोही मन, सर्द से पत्थर में बदल जाते हैं, हर बार ………

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