कुछ अनुभव –किशोर

 

 

बात कक्षा 11  की है. स्कूल के समय में स्कूल  के बाहर शिकिंजी वाले के पास खड़े थे. विपिन नाम का  एक और दोस्त और  मिल गया तो गपशप शुरू हो गयी. इतने में स्कूल का गेट खुला और उसमे से हमारे प्रिंसिपल भटनागर साहब अपने स्कूटर पर  बाहर  आते दिखे .

 

हमने हर अध्यापक का कुछ न कुछ नाम रख रखा था. सब अध्यापकों को भी उनके छदम नाम मालूम भी थे. किसी की मूछ छोटी थी तो उसे चार्ली, कोई बहुत लम्बा था तो जिराफ और किसी का  बिना कारण ही कुछ नाम रख रखा था.हो सकता उनके नामो के पीछे कोई इतिहास हो पर  हमे नहीं मालूम.  कुछ बच्चे तो उनके सामने ही उनका  छदम नाम लेने में भी नहीं डरते थे. कक्षा 9 या 10 में  संस्कृत के एक अध्यापक थे जिन्हें हम भालू कह कर बुलाते थे. एक बार वह हिंदी से संस्कृत अनुवाद सिखा रहे  थे. करना यह था कि खुद ही एक वाक्य बोलना था और उसका संस्कृत में अनुवाद करना था. हम सब आसान आसान वाक्य सोच रहे थे जिनका अनुवाद हो सके. बहुत कम बच्चे अनुवाद करने में सफल हो पा रहे  थे और हमारे अध्यापक उन्हें ठीक करके अगले बच्चे से पूछने लगते.लेकिन एक खुरापाती के दिमाग में कुछ और ही था. उसका नंबर आया. तो उसने वाक्य बोला “भालू जंगल में नाचता है”. सारी class ठहाका लगाकर हंसने लगी. अध्यापक को तो पता ही था कि भालू कौन है लेकिन सीधा सीधा तो कुछ कह नहीं सकता था. तो उसने उस लड़के से कहा कि इसका अनुवाद करे. अब इस मुश्कित वाक्य का अनुवाद कैसे हो. शायद उसे यह भी नहीं पता था की भालू को संस्कृत में कहते क्या हैं? पर अध्यापक जी अड़ गए कि बच्चा इस वाक्य का अनुवाद करे जो असंभव था. उसके बाद उसकी जमकर पिटाई हुई. इसलिए नहीं कि वह अनुवाद नहीं कर पाया. उस कारण जिसका अंदाज़ा आप लगा सकते हो. आज वह एक मशहूर बच्चों का डॉक्टर है पर भालू को संस्कृत में क्या कहतें है ये उसे शायद ही मालूम ह

 

खैर में भटनागर साहब की बात कर रहा था. हम लोग भटनागर साहब को  “बाबा” कह कर बुलाते थे.क्यों ? यह मालूम नहीं! बड़े बच्चों से सुना था सो हमने भी कहना शुरू  दिया.  उनका स्कूटर देखते ही मैं बोला ” बाबा”. मेरा दोस्त गेट की तरफ पीठ करके खड़ा था और उसे प्रिंसिपल साहब   आते नहीं दिखे थे. लेकिन मेरी आवाज़ और हाव भाव का डर उसे साफ़ नज़र आ रहा था. मैंने आव देखा न ताव और वहां से भागना शुरू किया. मेरी देखादेखी  मेरे दोस्त ने भी मेरे साथ भागना शुरू किया. प्रिंसिपल साहब ने भी अपना प्रिया स्कूटर हमारे पीछे दौडा दिया. हम आगे-आगे और वह पीछे-पीछे. जब हमें लगा कि स्कूटर से बचकर नहीं भाग पायेंगे तो हम भाग कर एक घर में छुप गए. अन्दर जाकर साँस में साँस आई. हांफते हुए  मेरा दोस्त बोला ” अरे मैं क्यों भागा. मुझे तो एक अध्यापक ने officially कुछ सामान लेने भेजा था”. पर मेरी आवाज़ और हव भाव का खौफ देख कर बेचारा घबरा गया और बिना सोचे समझे भाग लिया. अब बेचारा फंस गया. वापस जा नहीं सकता था. मुझे गलियां देता रहा कि मैंने उसे भी फंसा दिया. क्या करें उसने कभीं बड़ो की सुनी ही नहीं थी कि ” बुरी संगत में कभी नहीं पड़ना”. खैर बुरी संगत का असर इतना बुरा भी नहीं पड़ा हालाँकि अगले ढाई दशक तक वो मेरे साथ हीं रहा और आज दिल्ली विश्विद्यालय में लेक्चरर है.

 

तो खैर थोड़ी देर बाद हमने सोचा कि प्रिंसिपल साहब चले गए होंगे. हिम्मत करके मेरा दोस्त मकान से निकलकर बाहर गली में आया. क्या देखता है? प्रिंसिपल साहब चुपके से बाहर खड़े हैं. उसने फिर आव देखा न ताव और  फिर भाग लिया और प्रिंसिपल स्कूटर पर उसके पीछे. स्कूटर से भाग कर  कहाँ तक भागता? पकड़ा गया. इतने में मुझे बाहर आने का मौका मिल गया. प्रिंसिपल साहब  कुछ नहीं बोले….बस इतना कहा की पांचवे पीरियड में दुसरे लड़के को लेकर आ जाना और चले गए.

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कक्षा 7 में पहली बार स्कूल से भाग कर बत्रा सिनेमा में मूवी देखने गए, मूवी थी “ज़माने को दिखाना है”..मूवी तो 3 बजे शुरू होनी थी पर स्कूल जाने में ये risk था कि अगर पहले पीरियड के बाद नहीं भाग पाए तो फंस जायेंगे. तो हम स्कूल ही नहीं गए. अब 1 से 2.30 का समय तो कहीं काटना ही था तो पैदल ही बत्रा तक गए. मूवी थोड़ी लम्बी थी पर हम ठीक छह बजे हाल से निकल कर फटफटी में बैठकर कैम्प पहुँच गए और वहां से स्कूल के लिए बस पकड़ी (जल्दी जल्दी में  कैम्प में गाड़ी के नीचे आते आते बचे). खैर स्कूल समय पर पहुँच गए. उसी समय छुट्टी हुई थी और हमने एक दोस्त से अपना बस्ता लिया और घर की तरफ और लडको के साथ चल दिए कि मानो स्कूल से ही आ रहे हो. उसी दिन गणित का पेपर कक्षा  में बांटा गया था. बदकिस्मती से  ज़िन्दगी में पहली और आखरी बार गणित में 40 में से 38 नंबर आये.दोस्त लोग ख़ुशी ख़ुशी घर बताने पहुँच चुके थे कि इसके 38 नंबर आयें हैं..घर पहुँचते ही माँ ने पूछा कि क्या कोई पेपर मिला है और हमने झूठ बोल दिया की नहीं मिला. फिर जो हुआ होगा उसका अंदाज़ा  तो आप लोग लगा ही सकते हो. उस दिन तौबा की स्कूल से भाग कर फिल्म नहीं जायेंगे और वह तौबा दो साल चली और उसक बाद कक्षा  9 में स्कूल से भाग कर फिल्म देखी.

 

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उम्र 10 साल के आस पास रही होगी.  एक बार मोहल्ले के दो बड़े लड़कों के साथ मैं बंगलो रोड के एक बंगले में अमरुद तोड़ने गया था. उन्होंने मुझे बंगले की ऊँची दीवार पर चढ़ा दिया था ताकि मैं उस पर खड़ा होकर अमरुद तोड़ सकूँ और नीचे फेंकता रहूं. पर एक-दो अमरुद तोड़ते ही बंगले से एक आदमी चिल्लाता हुआ निकल आया. आवाज़ सुनते ही वो दोनों लड़के तो रफूचक्कर हो गए. मैं उनकी मदद के बिना उस ऊँची दीवार से नहीं उतर सकता था सो वहीं खडा-खड़ा रोने लगा. आत्मसमर्पण के अलावा कोई चारा ना था. शेर के शिकार के लिए बंधी बकरी की तरह घबराया-सा उस आदमी का इंतज़ार कर रहा था. सबसे ज्यादा खौफ इस बात का था कि वो मेरे घर वालों को बुला कर मेरी काली करतूतों का कच्चा चिटठा बताएगा! बंगले के मालिक के साथ-साथ घर वालों की मार और तानों को भी झेलना पड़ेगा. आखिर बंगले के मालिक ने ही मुझे दीवार से उतारा. नीचे आने के बाद में और जोर-जोर से रोने लगा. चोरी करते हुए पकड़े जाने का क्या परिणाम होगा यह सोच-सोच कर मेरा पूरा शरीर कांप रहा था. खैर, वह इन्सान भला आदमी था और मेरा रोना देख कर उसे रहम आ गया. ‘चोरी करना बुरी बात है’, जैसी एक-दो नसीहतें देकर उसने मुझे छोड़ दिया. इतने बड़े हादसे से पाक साफ़ निकल जाने की बेहद ख़ुशी थी पर दोस्तों द्वारा मुसीबत में छोड़ के चले जाने का मलाल भी था

One thought on “कुछ अनुभव –किशोर

  1. dear kishore,

    you must have been in class 5 when you were 10 years old (same as i). so, you have culled these memorable experiences from your time in class 11, class 7, and class 5. all prime numbers! let us call this essay, prime time (kishore avastha)!

    krishna

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