हमारे लिए बस संविधान, भारत माता बचायें आपकी जान – Rakesh Kayasth

 

Samvidhan

देश की सबसे पवित्र किताब यहां का संविधान है। यह किताब इसलिए पवित्र है क्योंकि यह हमें इस बात की आज़ादी देती है कि हम गीता, कुरान, बाइबिल या गुरु ग्रंथ साहिब जैसी अनेक किताबों में से जिसे चाहें, उसे पवित्रतम माने। हम अपनी धार्मिक किताबों के तथाकथित सम्मान के लिए आये दिन सड़क पर लाठी, तलवार और त्रिशूल भांजते रहते हैं। लेकिन क्या इस देश में संविधान के अपमान से कभी किसी की भावना आहत होती है? संविधान का अपमान हर दिन, हर क्षण होता है।

व्यवस्था के हर कोने में इसकी चिंदियां बिखरी पड़ी हैं। हमलावरों का कोई भी समूह हरियाणा के जाटों की तरह जब चाहे सड़क पर उतरता है और संविधान की छतरी में सिर छिपाये जन-गन को पैरो तले रौंद देता है। क्या यह सब देखकर कभी किसी का खून खौला है? बाबा साहेब ने खून खौलाने की नहीं बल्कि खून ठंडा रखकर देशवासियों से अपने भीतर वैज्ञानिक सोच पैदा करने को कहा था। ज़ाहिर यह एक अनिवार्य उत्तरदायित्व है। लेकिन क्या हम ऐसा कर पाये? क्या यह देश संविधान की भावनाओं के अनुरूप चल रहा है? कहां है, वह सामाजिक न्याय जिसे लागू करके भारत को एक वेलफेयर स्टेट बनाने का सपना देखा गया था? सामाजिक न्याय के ना होने की चिंता किसे है? इस देश के एक तबके के लिए संविधान अमूर्त या निर्जीव सी चीज़ है। लेकिन भारत माता पूरी तरह सजीव हैं। जब भी जान फंसती है, भारत माता ही आकर बचाती हैं। पहले संविधान के पन्ने जलाइये फिर भारत की माता की गुहार लगाइये, इस देश में आपका कुछ भी नहीं बिगड़ेगा।

 

Kanhaiya

ऐसे माहौल में इस देश को संविधान सम्मत तरीके से चलाने का विचार सचमुच क्रांतिकारी है। जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार के भाषण को इसी रूप में देखा जाना चाहिए। भाषण के पक्ष में आ रहे रियेक्शन रेला यह भी बताता है कि हम नाउम्मीदी के किस दौर में जी रहे हैं।


जिस देश के नागरिकों से साइंटिफिक टेंपरामेंट’ अपनाने की अपेक्षा की जाती है, वहां सूचनाएं ग्रहण करने आधार फोटो शॉप पर डिज़ाइन किये गये पोस्टर और एडिट किये गये वीडियो बन चुके हैं। राजनीतिक विमर्श का स्तर यह है कि कोई भी बहस राहुल के पप्पू और मोदी के महान होने या ना होने से आगे बढ़ ही नहीं पाती। मीडिया अपनी सीमाएं तय कर चुका है और इसमें बदलाव की कोई दूर-दूर तक नहीं दिखती। देश की सबसे बड़ी आबादी के सवाल हाशिये पर ही नहीं बल्कि परिदृश्य से गायब हैं। ऐसे में रोहित बेरमुल्ला से आगे कन्हैया प्रकरण ने एक नई उम्मीद पैदा की है। वैकल्पिक राजनीतिक की कोई नई संभावना कहां तक आकार ले पाएगी, इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी है। लेकिन बहुजन विमर्श आहिस्ता-आहिस्ता एक केंद्रीय मुद्धा बन सकता है, इसमें ज़रा भी शक की गुंजाइश नहीं है। भारत माता की आरती गाने वाले ज़रूरत पड़ने पर संविधान की आरती भी गा देंगे। लेकिन आरती गाने से देश नहीं बदलता। संविधान की भावनाओं के अनुरूप देश वही लोग बना सकते हैं, जिन्हे इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है।

Rakesh Kayasth

Leave a comment