मंडल कमीशन की सिफारिशों को मंज़ूरी के बाद देश से दिल्ली तक सवर्ण युवकों को भ्रमित कर, एक तरह की सामंती मानसिकता को एक आंदोलन के रंग में पेश किया गया था। लेकिन हार्दिक पटेल के उभार को भी सिर्फ एक राजनीति या सिर्फ एक आंदोलन की तरह देखने की ज़रूरत नहीं है। जब तक इसकी असलियत सामने नहीं आती, तब तक इसको हर कोण से परखिए और हर तर्क पर कसिए। क्योंकि दरअसल यह राजनीति की राजनीति होती है कि आप असल आंदोलन से दूर रहें, लेकिन आंदोलनधर्मी होने के भ्रम में भी रहें। श्याम आनंद झा का विश्लेषण भी पढ़िए, औरों का भी पढ़वाया जाएगा।
- मॉडरेटर
हार्दिक पटेल आरक्षण का दूसरा चेहरा है पहला राजीव गोस्वामी था। यह आरक्षण के लिए अतार्किक मांग कर रहा है, पहले ने इसका अतार्किक विरोध किया था।
शायद आपको याद हो,
राजीव गोस्वामी दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था, जिसने मंडल आयोग की अनुशंसा के लागू किये जाने की घोषणा होते ही इसके विरोध में आत्मदाह करने की कोशिश की थी। रातों-रात (उन दिनों खबर को फैलने में एक रात का वक़्त लगता था।) वह आरक्षण विरोधी मुहीम का मुखौटा बन गया। भाजपा और कांग्रेस के कई नेता गोस्वामी के समर्थन और सहानुभूति में आ खड़े हुए। कुछ ही दिनों बाद गोस्वामी की शोहरत और उसके आंदोलन की आंच गुम हो गई।
हार्दिक का भी यही होना है। भावनाओं के ज्वार पर यह भी एमएलए/ एमपी बन सकता है। बस! इससे ज्यादा पटेलों के लिए फिलहाल इस आंदोलन में कोई और सम्भावना नहीं दिखती।
क्यों?
कोई भी सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन एक रेलगाड़ी की तरह होता है। जैसे रेलगाड़ी को चलने के लिए पटरी की ज़रुरत होती है वैसे ही आंदोलन के चलने लिए सामजिक/ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों की। गुजरात के पटेलों की सामजिक स्थिति जाननेवाले विशेषज्ञों का मानना है कि पटेलों की सामजिक स्थिति और तथ्य आरक्षण की मांग का समर्थन नहीं करते।
लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि पटेलों की इस एकजुटता का कोई नतीजा नहीं निकलेगा। गोस्वामी ने 1989 में आरक्षण का विरोध कर आरक्षण के सामाजिक समर्थन की प्रक्रिया को मज़बूत किया था, आने वाले दिनों में वही काम हार्दिक पटेल करेगा- उसकी आरक्षण की मांग से आरक्षण विरोध की प्रक्रिया तेज होगी।
कैसे?
हार्दिक पटेल के बारे में कुछ संदेहवादी कह रहे हैं कि इसे कांग्रेस ने खड़ा किया है। भले ही उसे किसी ने खड़ा न किया हो, पर सभा में जैसी भीड़ उमड़ी थी, और पिछले तीन दिनों से सोशल मीडिया पर जो ट्रेंड चल रहा है, उसके हिसाब से ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी न होगी जो उसे अपने साथ रखने की कोशिश नहीं करेगी।
हार्दिक की रणनीति और उसके भाषण पर नज़र रखने वालों का मानना है कि हार्दिक उतना कच्चा और बच्चा नहीं है, जितना दिखता है। उसने अपने आस पास कुछ पैने दिमाग
वाले लोगों को शामिल कर रखा है। ऐसे में हार्दिक उसी पार्टी के साथ जाएगा जो उसे ‘बेस्ट डील’ दिलाने का भरोसा देगी ।
पटेलों को आरक्षण मिलने की बात जैसे शुरू होगी का पुरज़ोर विरोध होगा। विरोध वे लोग करेंगे जिनको अभी आरक्षण का सीधा लाभ मिल रहा है। जैसे बिहार उत्तर प्रदेश के यादव, कुर्मी, राजस्थान के मीणा, आंध्रा और तेलांगना के रेड्डी आदि।
पटेलों के लिए आरक्षण का विरोध करने वालों के विरोध में समाज का एक बड़ा तबका आएगा, जिसे आरक्षण के कारण सीधा नुकसान हुआ है। जैसे हरियाणा और दिल्ली के जाट, राजस्थान के गुर्जर, बिहार के भूमिहार आदि। लेकिन ये सीधे उस तरह नहींआएँगे , जैसे गोस्वामी आया था। यह विरोध के मोर्चे पर पटेलों, गुर्ज्ज़रों जैसे दूसरे समुदायों को रखेंगे, खुद पीछे रहेंगे।
आज ग्रामीण भारत के बड़े हिस्से में यह भावना जोर पकड़ रही है कि समाज के एक बेहद छोटे हिस्से को आरक्षण का बड़ा और बेजा फायदा मिल रहा है. और एक बड़े वर्ग जिसको इसका लाभ मिलने की सख़्त ज़रुरत है, को इससे दूर रखा गया है।
आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करने वाले यही लोग हैं जो विभिन्न प्रांतों और राज्यों में अपनी अपनी जाति के नाम पर बंटे हुए हैं। चूँकि अलगाव की इस हालत में जो आंकड़े सामने आते हैं वे इनकी मांग के समर्थन में खड़े नहीं होते, इसलिए इनका आंदोलन गति नहीं पकड़ पाता। लेकिन जब आरक्षण के वर्तमान स्वरुप के समर्थक और इसमें बदलाव के लाने के लिए इसके विरोधी, आमने सामने आएँगे तब जो राष्ट्रव्यापी तस्वीर उभरेगी वह कुछ अलग होगी, जिससे इसमें फेरबदल की गुंजाईश बढ़ेगी। लेकिन ऐसा होने में अभी काफी वक़्त लगेगा।
इसमें हम क्या चाह रहे हैं, आप क्या चाह रहे हैं और हार्दिक पटेल क्या चाह रहा है, उसका कोई मतलब नहीं है। यह नया युग है, उचित मांगों को न तो दबाया जा सकता और न बेजा मांगो को माना।
पुनश्च: 2004 में जब जॉन्डिस और लिवर की बीमारी से झूझते हुए राजीव ने अंतिम साँसे लीं, उसकी मृत्यु शैय्या के पास उसके अपने परिवार के सदस्यों के अलावा कोई नहीं था – न नेता, न कार्यकर्ता न भाजपा के और न कांग्रेस के। मेरी यह कामना है कि हार्दिक स्वस्थ रहे और चाहने वालों से घिरा रहे!
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, सिनेमा और थिएटर से जुड़े रहे हैं।