सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू – Mayank Saxena

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सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू – ये पूरी बहस पिछले लगभग 75-80 साल से चलती आ रही है…सवाल ये है कि हम इस मामले को क्या रेशनल हो कर देखते हैं…तो हम कैसे रेशनल हो कर देख सकते हैं…क्योंकि हम उस वक्त थे नहीं…ऐसे में रेशनल होने के लिए निष्पक्ष तर्क अपनाने के लिए सभी को पढ़ना पड़ेगा…सब यानी कि सिर्फ वो लोग नहीं, जो विवाद की धुरी थे, वो भी जो आस पास थे और सब कुछ देख रहे थे…

अभी तक की बहस में हम अपने अपने तर्कों, पढ़े और समझे गए तर्कों को अपने नज़रिए और विश्वास के आधार पर बहस में रख रहे हैं, लेकिन इस मामले का कोई एक पहलू नहीं है…
क्या नेताजी सुभाष चंद्र बोस, हिटलर के पास नहीं गए थे…क्या इटली और फासीवाद से उन्होंने मदद नहीं ली थी? देखिए, इस सवाल का एक जवाब ये है कि अगर वो किसी और देश में होते, तो उनको इस तरह के लोगों से सम्बंधों के लिए सम्मान नहीं मिलता…लेकिन हम जब भारत और तात्कालिक परिस्थितियों की बात करते हैं, तो हम कहते हैं कि वह वक़्त की मांग थी…
भगत सिंह के लिए भी हम पहले राजनैतिक हत्याओं और फिर एसेम्बली में गिरफ्तारी दे देने के विरोधाभास को भी समय और परिस्थिति की मांग कहते हैं…
कई मामलों में हम सावरकर तक को इस तरह की छूट दे देते हैं…और चापेकर बंधुओं को भी…तिलक को भी…और देश-काल-परिस्थिति कह कर उसे तर्क संगत बताते हैं…
लेकिन दरअसल जब हम गांधी की बात करते हैं या नेहरू की बात करतेँ है, तो सबसे पहले इसी सर्वव्यापी तथ्य को नज़रअंदाज़ कर देते हैं…तब हम रेशनल नहीं रहते…तब हम अचानक से गांधी को न जाने किस किस और कौन कौन सी बातों का अपराधी ठहराने लगते हैं…और गांधी को अपराधी ठहराते वक्त, हम उनके आस पास के सभी लोगों को, जो उनकी नर्मी का समर्थन करते थे, अपराधी ठहरा देते हैं…
कहीं ऐसा तो नहीं कि उग्र राष्ट्रवाद का नायकत्व और हीरोइज़्म हमको आकर्षित करता है…इसलिए इस खांचे में गांधी उतने फिल्मी नायक नहीं लगते हैं…फंतासी नहीं बना पाते हैं…जबकि सुभाष बाबू, भगत सिंह और सरदार पटेल भी इस तरह की फंतासी रचते दिखाई देते हैं…और हमारा झुकाव उस से तय हो जाता है…
हमको सोचना होगा कि क्या उस वक्त परिस्थितियों का सबसे बड़ा दास कौन था…वही, जो अहिंसा के रास्ते पर था…(ऐसा कह कर मैं किसी एक का पक्ष नहींले रहा हूं..) भगत सिंह ने जेल से ही लिखे एक लेख में गांधी के अग्रेज़ों को समझौते की मेज़ तक हर बार लाकर अपनी कोई न कोई मांग मंगवा ले जाने की क़ाबिलियत की तारीफ़़ करते हुए, समझौते को लड़ाई का अनिवार्य हिस्सा बताया है…
लेकिन हर शर्त मनवा ली जाए, वो भी उस से, जिसके खिलाफ आप आंदोलन छेड़े हों…ये दरअसल गांधी के खिलाफ पिछले 90 साल से संघ परिवार के अहर्निश चले आ रहे प्रोपोेगेंडा आंदोलन का हिस्सा है, जिस के तहत फैलाई गई अफ़वाहें, किस कदर हमारे मानस में घर कर गई हैं कि कई साथी कामरेड भी उनको सच मानने लगे हैं…
हम कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, गांधीवादी कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन रेशनल होने के साथ साथ सबसे पहले हम भारतीय हैं…और इसलिए हम पूरी तरह निष्पक्ष कभी नहीं हो सकते हैं…

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