दुर्गा वाहिनी की रजनी ठुकराल कहती हैं, कि गलत परम्पराएं डाल रही महिलाओं का बहिष्कार होना चाहिए। रजनी के मुताबिक, दीपिका पादुकोण ने, वोग के वीडियो में अपनी यौनिकता के बारे में बात करते हुए (जिसे केरसी खम्भाटा ने लिखा), एक गलत परम्परा की शुरुआत की है।
महिलाओं के सशक्तिकरण और उनके चुनाव (choice) पर गंभीर बहस करना असम्भव है, जब दुर्गा वाहिनी इसी प्रकार के किसी और खापवादी मानसिकता के बयान पर आ जाए। लेकिन साथ ही यह समय है, जब हमको अपने चुनाव के बारे में बोलना और लिखना चाहिए।
चुनाव (choice) एक अच्छा शब्द है। चुनाव एक राजनैतिक शब्द है। चुनाव दुनिया भर की नारियों के लिए एक ऐतेहासिक शब्द है।
जब महिलाओं का एक समूह कहे, ‘यह मेरा चुनाव है’, तो वे वास्तविकता में नारीवादी आंदोलन को अपनी सम्मान दे रही होती हैं। इसको छः दशक से भी अधिक पुराने चुनाव समर्थक (Pro-Choice) आंदोलन को सलामी के तौर पर देखा जा सकता है, जो अमेरिका में शुरु हुआ और जिसने 1973 में गर्भपात को विधिक मान्यता दिलाने जैसी सफलताएं हासिल की। चुनाव का अधिकार पाने का अर्थ, गर्भपात का समर्थन नहीं है। चुनाव के अधिकार के समर्थकों में वह लोग भी हैं, जो इसके विरोधी हैं या इस से असहज होते हैं, लेकिन वह अपना मत किसी क़ानून द्वारा, सभी महिलाओं पर नहीं थोपते हैं। चुनाव की आज़ादी का आंदोलन, जन्म पर गर्भपात को वरीयता नहीं देता। यह बस महिलाओं को इसे तय करने की आज़ादी देता है। इस आंदोलन ने बड़ी संख्या में किशोरवय युवतियों और महिलाओं को अनैच्छिक गर्भ से बचाया है पर आज भी बड़ी संख्या में लोग Pro-life आंदोलन के साथ हैं, अर्थात वे सभी तरह और जीवन के पड़ाव में किए जाने वाले गर्भपात का विरोध करते हैं और मानते हैं कि उनके धर्म, परिवार और राज्य का स्त्री के गर्भधारण पर भी अधिकार है।
निश्चित रूप से वोग एम्पॉवर शॉर्ट फिल्म के निर्माता, महिला आंदोलन में ‘चुनाव या चयन’ शब्द के इतिहास से वाकिफ रहे होंगे। इस तरह के दावे भी रहे हैं कि यह एक नारीवादी वीडियो है। अतः मेरा प्राथमिक आकलन है कि ‘चुनाव’ शब्द को सोच-समझ कर, यह जताने के लिए इस्तेमाल किया गया है कि होमी अदजानिया और दीपिका पादुकोण का यह वीडियो नारी सशक्तिकरण के विषय में बात करेगा। अगर ऐसा है तो मैं यह पूछने पर मजबूर हूं कि क्या सशक्तिकरण संयुक्तता के लिए है? क्या उन के सशक्तिकरण के लिए एक वीडियो बनाना न्यायसंगत/ सैद्धांतिक/ईमानदारी है, जो पहले ही सशक्त हैं और सिर्फ यह तर्क दे रहे हैं कि उनके मुद्दे भी मुद्दे हैं?
इस वीडियो ‘माई च्वाइस’ को मैं कुछ ऐसी महिलाओं के पास ले गई, जो जाति-वर्ग श्रेणी, लैंगिक गतिशीलता, मानसिक, यौनित एवम् प्रजनन स्वास्थ्य के अलावा अन्य महिला विषयों का गंभीर विश्लेषण कर सकती हैं।
जिस महिला से सबसे पहले मैंने सम्पर्क किया, वह थीं रजनी तिलक, एक दलित नारीवादी लेखिका। रजनी ने वीडियो नहीं देखा था पर उसे देखने को उत्सुक थी जब मैंने उनको जानकारी दी कि यह महिला सशक्तिकरण पर चर्चित हो रही, एक शॉर्ट फिल्म है, जिसका निर्माण वोग ने किया है। रजनी ने मुझे फोन किया और कहा कि वह इस वीडियो से प्रभावित नही हुई हैं. उन्होंने मुझ से सीधे कहा, “यह दलित महिलाओं की बात नहीं करता। मैं इसकी लक्ष्यित दर्शक नहीं हूं।”
रजनी ने पूछा, “मुझे नहीं लगता है कि कोई भी यह कह रहा होगा कि यह क्रांतिकारी अथवा कला का भी उत्कृष्ट नमूना है।” मैं चुप रही। मैं थोड़ी सी जागरुक हूं कि एक सुविधा सम्पन्न मध्य वर्गीय, कान्वेंट में शिक्षित और सवर्ण महिला के तौर पर मैं भारत में महिलाओं की बड़ी आबादी की चिंताओं को समझने के लिए प्रशिक्षित नहीं हूं।
“कामकाजी दलित महिलाओं के आंदोलन और उच्च वर्गीय/जातीय महिलाओं के किसी आंदोलन में मूलभूत अंतर यह है कि हम परिवार में विश्वास रखते हैं लेकिन पितृसत्ता नहीं चाहते हैं। उच्चवर्गीय महिलाएं, वह नारीवादी हों अथवा न हों, पृथक हो कर भी अपना गुज़ारा चला सकती हैं। उन में से कितनी कार्यस्थल पर पितृसत्ता का सामना करती हैं? मैं इसे किसी प्रकार का अहम कथन नहीं मानती कि वह उच्चवर्गीय विवाहित महिलाओं के ब्राह्मणवादी विवाह के प्रतीकों को महज आभूषण कहती हैं। वाकई क्या यह फिल्म निर्माता का नारीवाद है अथवा वोग का? हम दलित महिलाएं इन मुद्दों का बीसवीं सदी की शुरुआत में ही सामना कर चुकी हैं।”
“हम मानते हैं कि परिवार किसी महिला के लिए सबसे सुरक्षित स्थान नहीं है। हम सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर ग़लत विवाहों को सही भी नहीं ठहराते। निश्चित रूप से हम किसी पुरुष द्वारा महिला से दुर्व्यवहार का समर्थन नहीं करते हैं, लेकिन हम सामूहिकता में जीने के लिए परिवार का समर्थन करते हैं। जिस गरीबी में हम रहते हैं, हम सामूहिकता में रहने को प्राथमिकता देंगे और परिवार के हर सदस्य के संसाधनों का दोहन करेंगे, जिससे परिवार अस्तित्व में रहे। उच्च वर्गीय उदार महिलाएं अकेले रहने के साथ-साथ सांस्कृतिक और कलात्मक रूप से विरोध जता सकती हैं। मैं नहीं जानती कि जब असल नारीवादी मसलों की बात आती है तो इनमें से कितनी महिलाएं विरोध प्रदर्शन अथवा सहभागिता जताती हैं। वह हमारे साथ एकजुटता नहीं दिखाती हैं।
उच्चवर्गीय उदारवादी महिलाओं के भी स्वतंत्र संघर्ष हैं, लेकिन वे कुछ निश्चित घटनाओं के खिलाफ ही विरोध जताती हैं। आज घर या फिर कार्यस्थल पर किसी भी प्रकार की पितृसत्ता के खिलाफ कोई सामूहिक संघर्ष जारी नहीं है। हम अपने युद्धों का चुनाव, बेहद सावधानीपूर्वक करते हैं क्योंकि हम जाति, रोज़गार, गरिमा एवम् स्वाभिमान सम्बंधी मुद्दों का प्रतिदिन सामना करते हैं। यह एक समूह के मुद्दे हैं। हम अपने आप को उच्चवर्गीय/उच्चजातीय महिलाओं के मुद्दों के साथ आंख मूंद कर नहीं जोड़ सकते हैं। हालांकि वे दक्षिणपंथी हिंदू ताक़तों के मुक़ाबले हमारे अधिक समीप हैं। हमारी लड़ाई जाति, वर्ग और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ है।“
रजनी की चिंताओं से सहमति जताते हुए, दिल्ली की दलित नारीवादी लेखिका और कवियित्री अनीता भारती दुख जताती हैं कि संख्या में अधिक लेकिन अवसरों और सुविधाओं से वंचित आबादी के लिए एक सूचनाप्रद और सशक्तिकरण करने वाली फिल्म बनाने का एक और मौका गंवा दिया गया। वह इंगित करती हैं कि सार्वजनिक मंच से वंचित आवाज़ों/चेहरों की अनुपस्थिति दरअसल सुविधाभोगी समाज के लिए “अनुपस्थिति की स्वीकार्य हिंसा” है। उच्च वर्ग एवम् जातियां, सदैव आत्ममुग्ध रही हैं और शायद ही कभी इस प्रकार की आवाज़ों की अनुपस्थिति को हिंसा का एक प्रकार मानती हैं।
अनीता भारती आगे कहती हैं, “यौनिकता की स्वेच्छा और यौनिकता भी नारीवाद का हिस्सा हैं। लेकिन सिर्फ एक हिस्सा हैं। हमारे लिए सामाजिक हिंसा एक मुद्दा है। यदि कोई दलित महिला सरपंच को सिर्फ उसकी दलित के तौर पर हैसियत जताने के लिए गोबर खिलाया जाता है, तो ऐसा करने वाला सिर्फ एक जातिवादी व्यक्ति है, न कि मेरा साथी। जब हम पितृसत्ता के साथ अपने मोहल्ले और खाप में मुक़ाबला करते हैं, तो हमारी रणनीति निजी सम्बंधों और जीवन जीने के अधिकार में स्पष्ट भेद करने की होती है। हम प्रेम और निजता के लिए भी लड़ते हैं लेकिन इसके पहले हमारे सम्मान और सामाजिक सुरक्षा के संघर्ष हैं।”
“क्या दीपिका, ज़ोया, अधुना और अन्य महिलाएं सिर्फ अपने चुनाव के बारे में बात करना चाहती हैं? वो कर सकती हैं। उन्हें करनी चाहिए। लेकिन वह सिर्फ नारीवादी राजनीति का एक हिस्सा है। अपने लिए खड़े होना। नारीवाद, दरअसल अपने बाहर की ओर भी देखना है, किसी के परिवार, किसी के सामाजिक ढांचे की ओर और फिर एक ऐसे आंदोलन तक पहुंचना जो आप से कहीं अधिक बड़ा और विविधतापूर्ण हो।”
लाबिया (लेस्बियन एंड बाइसेक्शुअल इन एक्शन), मुंबई के संस्थापक सदस्यों में से एक चयनिका शाह कहती हैं, “अपने यौनिक चुनाव एवम् यौनिकता के कारण आने वाली समस्याओं के अलावा भी एलजीबीटी समुदाय अन्य कई बाधाओं का सामना करता है। यदि मैं मुम्ब्रा की कोई मुस्लिम महिला हूं, तो मुम्ब्रा में रहने का चुनाव भी मेरे अन्य चुनावों में बाधा है। मेरी रिहाइश का चुनाव मुम्ब्रा है क्योंकि मेरे लिए आर्थिक-सामाजिक बाधाओं के साथ-साथ सांस्कृतिक सरलता भी कारण है। यह सब मेरी यौनिकता को प्रभावित करते हैं। अतः वर्ग, जाति एवम् यौनिकता का एक जटिल अंतर्सम्बंध है।”
महिला अध्ययन की विद्वान एवम् महिला अधिकार कार्यकर्ता, प्रोफेसर इलीना सेन का विचार है कि वोग, दीर्घकाल से दमित, महिलाओं की यौनिकता को लेकर उनकी चिंताओं को सशक्त एवम् स्पष्ट करता है, लेकिन वो आगे कहती हैं कि नारियां, सामाजिक, राजनैतिक एवम् आर्थिक जीवन जीने वाली व्यक्ति एवम् नागरिक भी हैं। यह वीडियो उन चिंताओं को निश्चित रूप से ही नहीं दर्शाता है।
वह आगे कहती हैं कि तमाम ग्रामीण एवम् कामगार महिलाएं हम में से अधिकांश के मुकाबले कहीं अधिक वंचित जीवन जीती हैं। यह संदेश समस्याजनक हो सकता है क्योंकि यह महिलाओं को उनकी देह तक सीमित कर के, एक भौतिक पहचान में क़ैद करते हुए, मात्र अतिरेकता में मुक्तिकारक प्रतीत होता है।
दुर्गा वाहिनी के इस वीडियो के खिलाफ नैतिक ठेकेदारी के लिए उतरने से पहले ही, आभासी दुनिया (Internet’s virtual world ) के कुछ स्त्री और पुरुष इस वीडियो की “विवाहेत्तर संभोग (सेक्स आउटसाइड मैरिज)” से आहत थे। सामाजिक कार्यकर्त्री कविता कृष्णन इस वीडियो के बारे में अधिक नहीं सोचती लेकिन दीपिका पादुकोण पर हो रहे हमलों से नाख़ुश दिखती हैं, “दीपिका की विवाहेत्तर सम्बंधों के वक्तव्य पर आलोचना कर रहे लोगों को पता होना चाहिए कि एक स्त्री की इच्छा का प्रश्न केंद्रीय और अहम प्रश्न है, बल्कि यह सिर्फ उच्च वर्गीय महिलाओं का प्रश्न भी नहीं है। लेकिन इस प्रश्न को वीडियो में अतिरेकता और ग्लैमर से भर दिया गया है, जहां यह सबसे मुश्किल ज़मीन पर चलता है।” कविता हैरान होती हैं कि इतने अंतरंग चयनों पर बात करने वाला वीडियो अंतर्धार्मिक और अंतर्जातीय सम्बंधों पर बात करना भूल जाता है।
एक यौन एवम् प्रजनन अधिकार कार्यकर्ता डॉ. राधिका चंदिरामणि कहती हैं, “विवाह के बाहर सेक्स से आहत होना मूर्खतापूर्ण और ढोंग है। हम किस युग में रह रहे हैं? सच यह है कि शादी अब और अधिक सेक्स का अनुमति प्रमाण पत्र नहीं है। यदि आपको आंकड़े चाहिए, शोध निष्कर्षों को देखिए।” डॉ. चंदिरामणि वोग सशक्तिकरण वीडियो के समर्थन में हैं और कहती हैं, “यह वीडियो मेरे लिए एक स्त्री के शरीर, मस्तिष्क और भावना पर उसके अधिकार की बात करता है, जिसमें सहज हास्य भी है। मैं जानती हूं कि यह तेज़ी से विवादित हुआ है लेकिन 2 मिनट से थोड़ा ही लम्बा है और सभी बातें स्पष्ट रूप से नहीं कर सकता है।”
डॉ ज़ेबा इमाम थोड़ी सूक्ष्म असहमति जताती हैं, “यौनिकता के चयन के विषय को नियंत्रण, ढांचागत हिंसा, प्रतिदिन के भेदभाव के साथ जोड़ कर देखना चाहिए, जो महिलाओं को कई तरह से प्रभावित करते हैं और उसे मात्र एक वर्ग विशेष के हितों के साथ संकीर्णता से संभोग करने के अधिकार मात्र के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। मेरा निजी मत है कि वीडियो ने मुद्दे को महत्वहीन बना कर छद्म पुरुष बनाम महिला अधिकारों के विसंगत रूप में ढाल कर बहस को पटरी से उतार दिया। लेकिन मैं मानती हूं कि यह सभी लोगों की राय नहीं हो सकती है।”
भारत की सबसे सम्मानित मनोविश्लेषक डॉ मधु सरीन कहती हैं, “यहां विवाहेत्तर सेक्स शब्द के इस्तेमाल में कुछ ग़लत नहीं है।” लेकिन फिर तमाम दलित नारीवादियों की ही तरह ही डॉ सरीन भी मानती हैं कि वीडियो या तो महिलाओं द्वारा झेली जा रही चुनौती और संघर्षों को दरकिनार करता है या समझ नहीं पाता है की परिवार, मित्रों, सहजीवियों से प्रेम करती महिला सम्मान या एकीककरण के लिये एक अलग स्तर पर मानसिक जद्दोजहद करती है। वह कहती हैं कि इस के अहम मानसिक परिणाम होते हैं वैसे ही जैसे परिवार और कार्य स्थल में लगातार मूल्यहीनता का अनुभव करने से भी मानसिक परिणाम भुगतती हैं।
मीना सेशु, जो सेक्सकर्मियों के साथ सांगली में काम करती हैं, कहती हैं, “मेरे लिए निजी तौर पर इसका संदेश अर्थहीन है। मैं तमाम विज्ञापनों को ऐसा ही पाती हूं। यह ग्रामीण जनता के लिए नहीं है और उनको स्पर्श तक नहीं करता है। मैं विवाहेत्तर सेक्स को मुद्दा नहीं मानती। मेरे लिए यह कुछ नहीं है। वोग ने वह पा लिया है, जो उसे चाहिए था…बाज़ार…वह बैंक की ओर जाते हुए हंस रहे होंगे। इसे वोग सशक्तिकरण कहलवाना ही अहम मुद्दा है। क्या वोग सशक्तिकरण कर सकती है?”
मीना आगे कहती हैं, “सशक्त होना बहुत महंगा है।”
(Translation Courtesy: Mayank Saxena)
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