मजदुर किसान शक्ति संगठन की फाउंडर मेंबर अरुणा रॉय से खास मुलाकात

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Teesta Setalvad
Teesta Setalvad

तीस्ता सेतलवाड : नमस्कार आज की एक खास मुलाकात में हमारे साथ मेहमान रहेंगी अरुणा रॉय जी जो मजदुर किसान शक्ति संगठन की फाउंडर मेंबर हैं, और यह जन आंदोलन से जुडी हुई हैं, माहिती अधिकार कानून के लिए, बाकी भी मनरेगा वगैरा बहुत बड़े बड़े कानून जो इसदेश में आये वह आंदोलन से जुडी हुई हैं। बात करेंगे आज की चुनौती के बारे में. अरुणा जी नमस्कार, जन आंदोलनों के लिए आज सबसे बड़ी चुनौतियां क्या हैं?

अरुणा रॉय : जन आंदोलनों के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं की, हमें अपने अभिव्यक्ति करने के लिए जगह बहुत सीमट रही हैं इस देश में। हम लोगों के लिए जगह नहीं मिल रही है अपनी बात कहने के लिए इसका अर्थ यह नहीं हैं की हमे इकट्ठे होने के लिए जगह नहीं मिल रही हैं, हमारी बातों को कहने के लिए कोई मौका नहीं मिल रहा हैं। ना तो हमे मीडिया में मिल रहा हैं, ना तो हमे लिखने से प्रकाशित होते हैं कई जगह, और हमे बिलकुल ही नजर अंदाज़ करने के लिए सरकार का एक बहुत बड़ी योजना बनी हुई हैं . इस सिलसिले में हमे लगता हैं की हमारे मुद्दे सुनने वाला ही कोई ना हो। और उसकी प्राथमिकता इस देश में जो साठ सत्तर प्रतिशत लोग हैं, उनके मुद्दों के लिए कई जगह ही ना हो, तो फिर हमारा भविष्य क्या होगा, जब की साथ साथ कई सारे हमारे मुद्दों पर हमला भी शुरू हो गया हैं। हमारे कानूनों को समेटने की, छोटे करने की, हमारे मुद्दों को विकृत करने के लिए बहुत सारे सिलसिले शुरू हो गए हैं। इसलिए हमे लगता हैं की सबसे पहले हमारे वास्तविकता को समझे, हमे केवल वोट लेने के टाइम हमारे पास कोई नहीं आ सकता हैं। वह वोट लेने के लिए आये तो उसके लिए एक बहुत बड़ी प्रक्रिया हैं, उस वोट के लिए एक जिम्मेदारी भी हैं, एक जवाबदारी0020भी हैं, एक दायित्व भी हैं। इसको समझकर उस वोट को ले, तो फिर तो वोट बोलेगा, तो हम बोलेंगे तो हमारी बात को सुनना ही पड़ेगा।

तीस्ता सेतलवाड : ग्रामीण रोज़गार के लिए जो कानून बनाया गया हैं २००५ में, उसके बाद में फॉरेस्ट ट्राइब्स एक्ट, उसके बाद में ज़मीन को लेकर जो आंदोलन में अमेंडमेंटस लाये गए हैं डेढ़सौ साल के बाद, और आखिर में कामगारों के लिए जो डेढ़सौ साल से हमारे लिए प्रोटेक्शन किया गया यह सब कानूनों में इस तरह बदलने की कोशिशे की जा रही हैं, की आवाम और जनता के हक़ कम हो। आप यह चारों, पांचो चीज़ को कैसे जोड़ेंगे, और कैसे समझायेंगे लोगों को?

अरुणा रॉय : मुझे लगता हैं की, हम इसको इस तरीके से देखे की यह सारे कानून जो हमे सशक्त किया, की हम अपने संपत्ति अपने श्रोतों को, अपने ज़मीन को, अपने जंगल को, अपने मज़दूरी को, अपने हकोंको, अपने स्वास्थ को, अपने शिक्षा को कैसे हम लोग अपने आप संभाले, और उसमे हमारी भी बहुत जिम्मेदारीयां बढ़ी हैं, क्युकी संभालने का अर्थ हैं की आपको भी परिपक्वता के साथ, मँट्युअरिटी के साथ उसको डील करना चाहिए। तो वह भी हमारे ऊपर ही जिम्मेदारी आयी हैं, हमारे ऊपर यह भी जिम्मेदारी आयी हैं की, भागीदार हो। आप भागीदार नहीं होंगे तो आप काम में कुछ, फिर किसी को कुछ शिकायत नहीं कर सकते है। परन्तु हमारे ऊपर के एक लोकतान्त्रिक समझ बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी हैं। कि हम भी सत्ताधारी हैं, इस वोट को देने से वहा तक सिमित नहीं होता, जैसे आंबेडकर साहब ने कहा था की वोट देने वाला वोट देने तक ही सिमित रहे। और वह यह ना समझे की नीति और नियम बनाने वाले का वह वोट हक़दार जो बनाते हैं, वह हक़ हमारा भी हो सकता हैं। तो एक दिन वह कानून हमारे खिलाफ जायेगा। तो वह समझ आ रही हैं अभी लोगों में। वह एक खतरा हैं, कोई भी पार्टी अभी चला नहीं सकेगी जब यह बढ़ता जायेगा यह समझ फिर विकेन्द्रित तरीके से लोगों की समझ को, समझते हुए ही यह देश चलेगा। और वैसे यह देश चलेगा तो जो बिलकुल ही हुकूमत यह चाहती हैं की, बिना कोई विरोध हो। कंपनी राज़ आ जाये, कॉर्पोरेट राज़ आ जाये, या जो भी हम कहते हैं इसको परिभाषित करते हैं, आम भाषा में वह आ जाये तो फिर जवाबदेही भी नहीं हैं, सुचना का अधिकार भी नहीं हैं, और कुछ भी नहीं हैं जैसे चाहे एक राजसत्ता में जो बैठे हैं वह लोग और कंपनी वाले जो चाहते हैं पत्थर ले, हमारी ज़मीन ले, हमारी सड़क को बनाने की इसमें हमारे पहाड़ों को तोड़ रहे हैं। यह अरावली पहाड़ों को तोड़ रहे हैं।

तीस्ता सेतलवाड : ग्रामीण रोज़गार को जो लेकर कानून में बदल लाने की बात हो रही हैं यह सरकार के जरिये, आप जरा हमे यह समझाइये की ग्रामीण रोज़गार आकर यह जो मनरेगा का जो कानून आया उससे ग्रामीण इलाकों में क्या फरक पाया ?

अरुणा रॉय : मैं अपनी ग्राम की महिलाओं के बारे में मैं महिलाओं की ज़ुबान से ही बोल देती हूँ। एक तो मैं तमिलनाडु से शुरू करती हूँ, तमिलनाडु में हम गए आवड़ी के पास एक वर्क साइड पे। और ऐसे ही पूछा की यह रोज़गार गारंटी का कानून ख़तम हो जाये तो आपको क्या होगा। जबकि वह शिकायत कर रहे थे की यह नहीं हो रहा हैं, वह नहीं हो रहा हैं। मैंने कहा सवाल ही नहीं हैं की यह ख़तम नहीं होना चाहिए। यह हमारा कानून हैं, हमारे लिए ही आया हैं, इतने साठ सत्तर साल बाद तो हमे कुछ मिला हैं। और इसको ले जायेंगे तो फिर हम कैसे जियेंगे। उनकी कहानी थी, क्युकी भ्रष्टाचार हो रहा हैं। मगर मैं एक बात बताऊ तीस्ता जी पहले जो पैसे आते थे उसमे पैसा आया पता नहीं, गया पता नहीं, कहा हैं पता नहीं। कुछ भी नहीं पता। अब तो मालूम हैं सौ रुपये आ रहे हैं। तो साठ कहा गया, चालीस नहीं गया तो लोग शिकायत करने लगे। इसलिए कहते हैं की भ्रष्ट कार्यक्रम हैं, यह नहीं समझ रहे हैं की यह सबसे पहले कार्यक्रम हैं जिसमे लोगो को पता लगा हैं की, पैसा कितना आया हैं। इसकी वजह से पलायन बंद हैं। माइग्रेशन ख़तम हो गया हैं बहुत सी जगह। इसके वजह से महिला घर रहने लग गयी हैं। महिला घर रहती है तो बच्चे पलते हैं। उनके लिए शिक्षा, स्वास्थ सबकुछ पूरा सिलसिला हो गया हैं। पंचायत सशक्त हुए हैं, क्युकी एक पंचायत में दो लाख आते थे जैसे मेरी दोस्त नौरती बाई जो सरपंच हैं हरमाड़ा की, कहती हैं की दो लाख आने वाले पंचायत में अभी पचहत्तर लाख से डेढ़ करोड़ तक सवा करोड़ तक पैसे आ रहे हैं। क्युकी माँगो पर आधारित हैं। लोग मांगेंगे तो पैसा आएगा। यह प्री बजट आप मनरेगा के लिए बना नहीं सकते। आप कुछ अंदाज़न लिमिट लेबर बजट बना सकते हैं और प्रेडिक्ट नहीं कर सकते। क्युकी कानून हमे हक़ देता हैं। कब मांगे पंद्रह दिन में हमे काम मिलना चाहिए। तो इसको कैसे समाधान कर सकते हैं, तो इसलिए वो भी आया हमारे पास आज। हमारे छोटे बाजार हैं, व्यापार मंडल वगैरा, वह भी खुश हैं क्युकी यह करोड़ों रूपया लोकल बाजार में जा रहा हैं। जब दुनिया सबसे बुरे दिन आये थे मार्केटों के लिए और पुरे आपके सेंसेक्स निचे ही जाता गया उस समय गाव के छोटे छोटे कस्बो के बाजार अच्छे से चल रहे थे, क्युकी मनरेगा के पैसे गाव में आता हैं, वह लोग खाद्य के लिए, कपडे लत्ते जो भी खरीदते हैं, वह छोटे छोटे बाज़ारों में जाके खरीदते हैं। तो पैसा वहा जाता हैं। वह तो बैंक में कहा डालेंगे। पैसे इतने हैं ही नहीं। एक घर में कितना आता हैं, मैक्सिमम एक घर में १६८ रूपया आये और सौ दिन काम आये तो आपका सोला हज़ार रुपये एक परिवार में, एक हाउस में, एक घर में एक साल में आ रहा हैं इसके लिए इतना आलोचन हैं। और हम लोग कितने करोड़ एक एक घर में ले जाते हैं उसके लिए कोई सवाल ही नहीं। इसको आप एक तुलना करके देखे तो समझ में आता हैं की, इस देश में गरीबों को घृणा करने की एक राजनीती फ़ैल रही हैं। और उनको इतना दबा कुचला के रखे की वह बंधुवा मज़दूर जैसे काम करे वह मज़दूरी की मांग ना करे क्युकी हम मज़दूरी समझ गए हैं। मनरेगा सरकारी कानून हैं तो उसमे न्यूनतम मज़दूरी मिलने लग गयी हैं। तो खेत में बड़े खेतो में काम करते हैं, या कही छोटे फैक्ट्री में काम करते हैं

तीस्ता सेतलवाड : दूसरा फायदा यह हुआ हैं की, उनका मिनिमम एग्रीकल्चर वेज बढ़ा हैं।

अरुणा रॉय : हा सब जगह, उनकी बार्गेनिंग पॉवर बढ़ गयी हैं ना। अब वह कहते हैं की आप नहीं देंगे तो हम मनरेगा में चले जायेंगे। क्युकी वहा तो कम से कम चलिए कुछ कटौती होती हैं तो १६७ ना मिले तो १५० तो मिलेगा, १३० मिलेगा मतलब ५० रुपये तो नहीं मिलेंगे ना, उससे ज्यादा तो मिलेगा ही मिलेगा। तो यह जो वास्तविकता हैं, और इधर आप देखेंगे की जो खाद्य सामग्रीका कैसे कैसे बढ़ रहा हैं। आप देखिये आटा का क्या हैं, सब्जी ३० रुपये किलो से निचे ही नहीं आता हैं, लहसुन प्याज़ जिसके साथ चटनी बनाके लोग खाते हैं। चावल और आटा की रोटिया या गेहू की रोटिया बनाके खाते हैं वह भी मेहेंगी हो गयी हैं। केवल मिर्ची खाते हैं लोग, आप देखिये तेल जिससे हम खाना बनाते हैं। खाद्य तेल को आप देखे तो वह तो सबसे सस्ती तेल ९० रुपये किलो हैं। अब उनको आप कहते हैं की जिये, मगर मरते मरते जिये। आप कैसे कह सकते हो? हमारे लोग नहीं हैं ? उनकी आज़ादी नहीं थी क्या? देश में जब आज़ादी आयी, उनकी भी तो आज़ादी आयी। तो आर्थिक आज़ादी की बगैर उनकी आज़ादी कैसे परिभाषित होगी। तो मनरेगा ने उनको एहसास कराया हैं की सरकार को ना केवल करना चाहिए, वह कैसे कर सकता हैं और उसका दायित्व हैं और सरकार उल्टा कह रही हैं मनरेगा के थ्रू के निगरानी मेरे ऊपर तुम रखो। अब यह जो अर्बिटरी गवर्नमेंट हैं, जो यह चाहती नहीं हैं के लोग अपने विरुद्ध प्रतिष्ठित करे, या अपना मत प्रतिष्ठित करे। केवल वोट में मत प्रतिष्ठित करे। उनके लिए नामंज़ूर हैं, और बड़े कंपनियों का तो बिलकुल नहीं चाहते हैं की, गुलाम जितने मिले वो अच्छा हैं। और आर्गुमेंट दे दिया जाता हैं की हमारे विदेशी में सामान भेजे जायेंगे, विदेश में क्यों सामान भेजे। मैं कहती हूँ चीन के बने हुए राखिया इंडिया में क्यों बेचा जाये, हमारे मज़दूर घर क्यों बैठे। और उनकी राखिया हम बेचे यहाँ पे, उनकी मुर्तिया यहाँ बेचे, उनकी बनी हुई बनारसी साड़िया यहाँ बेचे। हम उल्टा इनको पूछना चाहिए की यह कोनसा अर्थव्यवस्था हैं के अपने खुद को मार के दुसरो को पन पाये। यह मार्किट किसके लिए अमीर खरीदेंगे उसको। गरीब का क्या होनेवाला हैं। बहुत सवाल हैं। यह सवाल ना पूछे जाये, यह सवाल के लिए मौका ना दिए जाये, वह इतने गरीब रहे के उनके दिन की रोटी के अलावा कुछ ना सुचे उसके लिये यह साजिश हैं। क्युकी मनरेगा हमे समय देता हैं।
तीस्ता सेतलवाड : साजिश किस की हैं, यह सरकार ने कम से कम पांच हज़ार करोड़ अपने इलेक्शन कँम्पैन में खर्चा करके यह सरकार बनी हैं। अगर एस्टीमेट लगाया जाता हैं तो पांच हज़ार करोड़ की बात आती हैं। अगर आपने देखा तो पहले १२१ दिन की सरकार में पहले ३ महीने में उन्होंने २४० इस तरह के प्रोजेक्ट्स पास कर दिए जो पूर्वी सरकार ने रोक के रखे थे एन्वॉयरन्मेंटल रिज़न्स, ज़मीन के कारण, जंगल के कारण हमारे महाराष्ट्र में गोंडा इलाका हैं, चंद्रपुर इलाका हैं जहाँ पे गोंडा आदिवासी रहते हैं वहाँ पे ३०० एकर ज़मीन हाल में नयी सरकार बनने के बाद महाराष्ट्र की अदानी को दी गयी। तो इस तरह का काम अभी हो रहा हैं, और वह वर्जन फाँरेस्ट हैं, मतलब भारत का लास्ट वर्जन फाँरेस्ट हैं वहां पे, और यह ज़मीन दी गयी हैं, और मुंद्रा में उन्होंने यह ज़मीन लेकर क्या किया हैं वह किसान ही जानता हैं। मुंद्रा की कोस्टलाइन के पास रहता हैं वहां का छोटा किसान। गुजरात में वह जानता हैं के अदानी ने मुंद्रा के कोर्ट को लेकर क्या किया। तो सवाल इतने गहरे हो गए हैं, और इतने बड़े पावरफुल लोब्बीज़ गए हैं, तो क्या सवाल उठाने में खतरा नहीं हैं लोगों को ?

अरुणा रॉय : इसीलिए तो सवाल नहीं चाहते, और मध्यमवर्गी तो खुश हैं क्युकी उनको लगता हैं की, चैन हैं दिल्ली में। रोज़ रोज़ टीव्ही में कुछ नहीं निकल रहा हैं। मगर मैं उल्टा यह सोचती हूँ की वह निकलता था तो कम से कम हमको मालूम होता था के हो क्या रहा हैं। यह सब आराम से नींद निकल रहे हैं उनको पता भी नहीं के वह वर्जन फाँरेस्ट कट रहा हैं, और मैं कहती हूँ की यह क्रोनी कँपिटलिजम नहीं हैं तो क्या नहीं हैं के ज़मीन आप ऐसे मुफ्त दे रहे हैं। आप उनको एक मिलियन डॉलर दे रहे हैं स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया का। जो स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया का यह पैसा मनरेगा चलाने में आना चाहिए था। हमारे सारे जो गरीब लोग हैं उनकी मुक्ति के लिए, और उनके पेट को पालने के लिए आना चाहिए था। यह पैसे आप दे रहे हैं और क्रोनी कँपिटलिजम के नाम से आप ने उनको जो कहा वह सही था मगर आप फिर ना बने क्रोनी कँपिटलिजम। आप खुद उसको चला रहे हैं तो फिर किस ज़ुबान से आप ने उनको कहा। और यदि आप सभी यही कह रहे तो फिर भारत में गरीब लोगों के लिए, और जो वंचित लोग हैं उनको सोचना पड़ेगा की क्या किस किसम का भारत हम चाहते हैं। तो यही डिविजिवनेस वो ला रहे हैं, और कहते हैं हमे की हम ही डिवाइड कर रहे हैं इंडिया को। वह डिवाइड कर रहे हैं। क्या आप जहाँ फटती हुई धरती को देखते हुए कहते हैं नहीं नहीं धरती एक ही हैं। आप एक कहने से आप एक करा रहे हैं। जबकि फटाने में आप काम कर रहे हैं। और हम कह रहे हैं की धरती फट रही हैं, बचो। तो जो कहता हैं बचो उसको तो कहते हैं तुम खतरनाक लोग हो। और जो वास्तविकता से दूर होकर कह रहा हैं, की नहीं नहीं सब सही हैं। ताकि सब उस खड्डे में गिर के मर जाये। उनको हम कहते हैं आप देवता लोग हो, और अच्छी अच्छी चीज़े कह रहे हो। और अच्छे दिन ले आओगे। यह तो बुरे दिन की बात करते हैं। अरे दोस्त जब यह बुरे दिन हैं तो बुरे दिन कहना ही पड़ेगा, ताकि अच्छे दिन आये। यह नहीं के अच्छे अच्छे दिन कह के आप बुरे दिन को नजरअंदाज कर देंगे तो वह हो ही नहीं सकता। गाव में तो शुरू हो गया हैं। मेरा दोस्त चुन्नी सिंघ कहता हैं जो बिलकुल उसके गरीब किसान हैं. बहुत बुद्धिमता हैं उसकी, वह दूसरी क्लास पढ़ा हुआ हैं। वह हमे सबको सुना रहा था, एक भाषण दे रहा था, की आप यह बुलेट ट्रैन-बुलेट ट्रैन की बात करते हैं, वह बुलेट ट्रैन के एक किलोमीटर में इतने पैसे खर्च होंगे। और कौन बैठेगा हम में से उसमे। बड़े व्यापारी, बड़े रईस लोग, कलेक्टर साहब और कर्मचारी और नेतागण सब बैठेंगे। और मध्यमवर्गी लोग भी बैठेंगे। उनको कहा मौका मिलने वाला हैं। कहते हैं इसपे इतना पैसा खर्च करते हो तो आपको कोई सोच नहीं हैं। मनरेगा में पैसा खर्च नहीं रहे। आपको इतना जलन क्यों हो रहा हैं की हम पल जायेंगे। वैसे आप देश के मज़दूरों को देखे तो ९३% हम तो गैर संगठित मज़दूर हैं, जैसे मनरेगा और ऐसे काम में कवर होते हैं। ७% ऑर्गनाइज मज़दूर हैं जो फैक्ट्री में काम करते हैं। जिनके ट्रेड यूनियंस राइट्स वगैरा हैं, और वो सब कर सकते हैं। अब यह दोनों हमला हैं। आप देखिये लेबर लॉज़ में करते हैं। तो आप यूनाइज लेबर को अटॅक कर रहे हैं। या आप अनऑर्गनाइज सेक्टर को अटॅक कर रहे हैं। दोनों अटॅक कर के लेबर को बिलकुल चुप कर देना, और बिलकुल गुलाम के रूप में करने के लिए ये पूरा साजिश हैं। गुलाम नहीं कहेंगे और वह एक दो पहलु हटा देंगे के उनके आप बंधुआ मज़दूर जैसे की वह रहता था, और वह जा ही नहीं सकता था। मगर ऐसे परिस्थिति क्रिएट करेंगे, जैसे हमारे पुराने मालिक क्रिएट करते थे की आपको लोन दे देंगे, आप लोन चूका नहीं पायेंगे, उसकी व्याज नहीं चूका पायेंगे। फिर चुकाते चुकाते उसी के साथ रहेंगे। अब हमारा बोंडेड लेबर एक्ट तो यही कहता हैं की यह रिश्ता ही बाँडेज हैं। आप शायद इसको भी बदलेंगे पता नहीं, मगर वह यही कहता हैं, तो उस रिश्ते तो पन पाने के लिए की वह और वह अभी उससे और भी खतरनाक चीज़े हैं की जो कंपनिया इन्वेस्ट करेंगी, वह आज मैंने सुना हैं पढ़ी नहीं हूँ की, एकदम तीन महीने या छह महीने के अंदर वह कंपनी नहीं चले तो इन्वेस्टमेंट को लेकर वह देश को छोड़ जा सकते हैं और जो प्रॉफ़िट्स हैं उनके ऊपर भी काफी जो बटवारा करना था, जो तीन साल यहाँ रहना था, वह सब भी बदल रहे हैं। ताकि यह किस के लिए यह सरकार चल रही हैं। सवाल तो बहुत ही बुनियादी हैं। हमारे लिए चल रही है की विदेशी पूंजी के लिए चल रही हैं। हमारे देश की पूंजीपति लोग जो भी विदेशी पूंजी में शामिल हो गए हैं उनके लिए चल रहा हैं। यह प्रधानमंत्री देश के लिए हैं, या विदेशी यात्राओं के लिए हैं, या वहां जाके अपने छवी को बनाना चाहते हैं। मगर एक महिला होने के नाते मैं कहूँगी की जो घर में ठीक नहीं हैं वह बहार ठीक नहीं हैं। और केवल ३१% वोट से जीते हुए इंसान अपने आप को महापुरुष समझ ले और हम भी यह समझ ले की आप को पुरे देश ने वोट दिया ! नहीं दिया। फिर भी आपको ६९% लोगो ने नहीं दिया वोट। हमारी जो वोटिंग सिस्टम हैं उसमे आप जीत गए। तो थोड़ी विनम्रता और थोडासा अपने आप को सोच कर के भाई हम सब के लिए प्रधानमंत्री हैं , आप केवल एक के लिए नहीं हैं वह समझना पड़ेगा। गोपाल कृष्ण गांधी जो हमारे पच्छिम बंगाल के गवर्नर रहे चुके हैं उन्होंने एक आर्टिकल लिखा था हिन्दुस्थान टाइम्स में जिसमे उन्होंने कहा विदेश में जाते हैं प्रधानमंत्री साहब तो केवल आप एक गुट के प्रधानमंत्री नहीं हैं आप हमारे सब के प्रधानमंत्री हैं, तो मैं कहूँगी आप इस देश में भी हमारे सब के प्रधानमंत्री हैं। तो एक गुट के लिए आप नहीं सोच सकते। आप यदी सब के लिए नहीं सोचेंगे तो यह देश वही सोचेगा आपके लिए जो सब के लिए सोच चूका हैं।

तीस्ता सेतलवाड : आपके यहाँ से नौजवानो के लिए क्या सन्देश हैं ?

अरुणा रॉय : मैं नौजवानो के लिए कहूँगी के आज जैसे नौजवान बह रहे हैं, जो उनके जुबान में, कानो में आता हैं, वह ज़ुबान में उतार देते हैं। और एकदम तुरंत प्रतिक्रिया कर रहे हैं, मैं उनको कहूँगी की आप कुछ तो पढ़िये। यह प्रोग्राम देखनेवाले सब इंटरनेट भी देखते होंगे। हमारी बात ना माने, किसी और की भी बात ना माने। आप इतिहास में जाकर देखिये कोई नेहरू हैं, वह नेहरू के एजेंडा पे ही तो आज सरकार चल रही हैं। गांधीजी और नेहरू के बीच में मतभेद था। गांधीजी कहते थे कुटीर उद्योग शुरू करो, गाव में जाकर शुरू करो। नेहरू ने कहा नहीं, हम तो बड़े बड़े उद्योग शुरू करेंगे। भाकरा नांगल डँम बना। बड़े बड़े स्टील मैन्युफैक्चरिंग प्लांट्स पब्लिक सेक्टर में बने। उनको समझना भी चाहिए के वामपंथी यु.एस.एस.आर मॉडल ऑफ़ इकनोमिक डेवलपमेंट, वह कैपिटलिस्ट मॉडल ही था। बट ओन बाय द स्टेट, दँट्स आँल। मगर उसका जो विरोध था वोह गांधी थे। उनका तो चला नहीं तो अब नेहरू को आप क्रिटिसाइज कर रहे हैं, आप आपकी खुद की बुनियाद को आप क्रिटिसाइज कर रहे हैं। तो गो बँक टू नेहरू एंड सी वाय। प्लानिंग कमीशन को एकदम कोई चु नहीं हुई इस देश में। हम कुछ लोग बोले, वह प्लानिंग कमीशन क्यों था जरुरी ? इसको समझे, डेमोक्रेटिक स्ट्रक्चर्स क्यों जरुरी हैं, मतभेद प्रतिष्ठित करना क्यों जरुरी हैं, डिसेंट क्यों जरुरी हैं। एक किसम के डिसेंट को केवल नहीं सुन सकते। आप डिसेंट सुनेंगे और आप टेक्स्टबुक्स को रिवाइज करेंगे, और पल्प करेंगे। दीनानाथ बत्रा की बात सुनेंगे तो आपको रोमिला थापर की भी बात सुननी ही पड़ेगी। यदि आप वहा पे तोगड़िया की बात सुनेंगे तो पलट के इस तरफ की बात भी सुननी ही पड़ेगी। आप पूर्वधारणा से भर जायेंगे। प्रेजुडिस से भर जायेंगे। तो खतरा मेरा नहीं हैं, मैं तो जाउंगी अभी कुछ साल के मेहमान हूँ इस देश में। आप लम्बे रहेंगे। आपको इस देश को वास्तव में देश बनाके रखना हैं, और सब के बीच में भाई चारा होना हैं। और तमिल भी बोल सकते हैं, आप कन्नड़ भी बोल सकते हैं। केवल हिंदी बोलना जरुरी नहीं हैं। आप किसी जाती साम्प्रदायीक के रहे सकते हैं, आप किसी लिंक के रहे सकते हैं। और अभिव्यक्ति सबका हक़ हैं, यह मान के बिरादरी जो बनायीं थी महात्मा गांधी के टाइम जो सबकी सुने, वह नेताजी की भी बात सुने, वह रविंद्रनाथ टागोर की भी बात सुने, वह आंबेडकर साहब की भी बात सुने। उनका मत उन्ही का रहा मगर वह सबकी बात सुने और अपने ही पत्रिका में सबको जगह दी हैं लिखने के लिए वह बड्डपन इस देश में उनके वजह से थोड़ी बहुत चली। उनमे भी खूब आलोचना हैं, हम सबकी आलोचना करते हैं, खुद की भी करते हैं। मगर गांधीजी ने वह जगह दी उसको हम समेट के आज यह कहने लग जाये की वह थे निकम्मे, और गोडसे थे हीरो। तो मुझे लगता हैं यह इतिहास को पलटकर हम कुछ लोग बिलकुल गलत चीज़ कह रहे हैं। देखिये अच्छा लगे या बुरा लगे मेरा चमड़ा काला हैं, मैं इसको सफ़ेद नहीं कर सकती। मुझे अच्छे लगे ना बुरा लगे मैं इस देश नागरिक हूँ, तो मुझे इस तरीके की चीज़े जो फैक्ट्स में आधारित हैं उसको पलटकर सोचना हमारी बेवकूफी होगी किसी और की नहीं। तो यह एक्टिविस्टों को बुरा कहना, या किसी को कहना, या किसी को कह देना यह फलाने कांग्रेसी हैं, यह फलाने लेफ्ट हैं, यह फलाने फलाने हैं। यह नहीं कह के उसूल क्या हैं, तथ्य क्या हैं, किस आधार पर यह लोग बोल रहे हैं। अपने ही मत क्रिएट करियेगा। हमारा तो जरूर ना ले, और किसी और का भी ना ले।

तीस्ता सेतलवाड : बहुत बहुत शुक्रिया अरुणजी हमारे साथ बात करने के लिए , बहुत बहुत शुक्रिया

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