बदलाव की शुरुआत एएमयू से ही होनी चाहिए – Abhishek Parashar

VC on cycle

मौलाना आजाद लाइब्रेरी में लड़कियों को प्रवेश देने के मुद़्दे को मुस्लिम समुदाय की छवि खराब करने की साजिश बताने की बजाए विश्वविद्यालय को इस मामले में खुद पहल करते हुए ठोस फैसला लेने की जरूरत थी लेकिन उसने ‘एक लड़कियां चार लड़कों को लेकर आएंगी’ का गैर वाजिब बयान देकर पूरे मामले को राजनीतिक बयानबाजी का खेल बना दिया. कायदे से किसी भी मामले में प्रोगेसिव कल्चर की शुरुआत विश्वविद्यालय परिसर से ही होनी चाहिए, लेकिन एएमयू ने इस मौके को व्यर्थ ही गंवा दिया.

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एएमयू में अंडर ग्रैजुएट महिला स्टूडेंट्स के मौलाना आजाद लाइब्रेरी में आने पर रोक लगी हुई है. पिछले दिनों यूनिवर्सिटी के वीसी लेफ्टिनेंट जनरल जमीरुद्दीन शाह ने लड़कियों को लाइब्रेरी में प्रवेश करने देने की मांग को अजीब तर्क के साथ खारिज कर दिया कि लड़कियों के वहां जाने से लड़कों की भीड़ चार गुना बढ़ जाएगी. सिविल सोसायटी के साथ साथ देश के राजनीतिक दलों ने उनके बयान की चौतरफा निंदा की. इसके बाद बीजेपी सरकार की शिक्षा मंत्री का एक बयान आया. ईरानी ने एएमयू के कुलपति के बयान को बेटियों का अपमान बताते हुए कहा, ‘एक महिला के तौर पर उन्हें यह बयान न केवल आहत करताहै बल्कि आंदोलित भी करता है. ईरानी ने कहा कि शिक्षा एवं संवैधानिक अधिकार सभी के लिए बराबर हैं.‘

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हालांकि उन्होंने छत्तीसगढ़ में महिलाओं की घोर लापरवाह तरीके से की गई नसबंदी के मामले में कुछ भी बोलना मुनासिब नहीं समझा. छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से लगाए गए मेडिकल कैंप में नसबंदी ऑपरेशन के दौरान अब तक 13 महिलाओं की मौत हो चुकी है और करीब 138 लोग बीमार हैं. ईरानी को इस पूरी घटना में महिलाओं के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन नहीं दिखा जबकि एक ही संविधान जहां लड़कियों को एएमयू में लड़कों को मिले अधिकारों की बराबरी का हक देता है वहीं संविधान देश के हर नागरिक को बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकार भी देता है. प्रभाव के आधार पर देखा जाए तो एक ही समय पर घटी दोनों घटनाओं में छत्तीसगढ़ का मामला ज्यादा संगीन था. लेकिन बीजेपी को एएमयू का मामला ज्यादा बड़ा दिखा.

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में लड़कियों के प्रवेश पर लगी रोक के मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि लाइब्रेरी में लिंग के आधार पर रोक अनुचित है. अदालत ने इस मामले में यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर को नोटिस भेजा है. मामले पर अगली सुनवाई 24 नवंबर को होगी. अदालत में एक जनहित याचिका दायर की गई थी जिसमें यूनिवर्सिटी के अधिकारियों को यह निर्देश देने की मांग की गई वे लाइब्रेरी में छात्राओं को जाने की अनुमति दें. इस पूरे बहस की सबसे कमजोर कड़ी स्मृति ईरानी का एकतरफा बयान, ‘मीडिया की भूमिका’ और मुस्लिम समुदाय की गैर जरूरी प्रतिक्रिया है जिसने एक तरह से सही और स्वस्थ बहस को गलत दिशा में मोड़ दिया. हालांकि ‘मीडिया की भूमिका’ का सबसे ज्यादा बेजा तरीके से इस्तेमाल किया गया. सही है कि कई सारे मुस्लिमों से जुड़े मामलों में मीडिया की भूमिका पूर्वाग्रह से ग्रसित रही है लेकिन बहस की शुरुआत मीडिया की तरफ से उठाए गए मुद्दों से ही होती है. इसलिए ‘मीडिया की भूमिका’ की आड़ में बहस को गलत दिशा में भटकाने की इजाजत नहीं दी जा सकती. किसी भी बहस की शुरुआत से पहले ‘मीडिया की भूमिका’ पर बहस एक अंतहीन प्रक्रिया है. इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा. दोनों बहस साथ साथ चलेंगी. आप यह नहीं कह सकते कि मीडिया की भूमिका और उसकी ‘ऑब्जेक्टिविटी’ पर किसी ठोस नतीजे तक पहुंचने की स्थिति से पहले उसे किसी भी मसले को उठाने का अधिकार नहीं होना चाहिए. यह घोर अलोकतांत्रिक जिद है जिसकी निंदा की जानी चाहिए और कहीं ज्यादा इस प्रवृति से बचा जाना चाहिए.

मुस्लिम युवाओं और बुद्धिजीवियों को यह लगता है कि मीडिया जान बूझकर एएमयू को बदनाम कर रहा है और वह लड़कियों के बराबरी के हक की मांग की आड़ में दरअसल विच हंटिंग के मिशन पर है जिसका निशाना अक्सर मुस्लिम समुदाय होते हैं और उन्हें अक्सर एक खास चश्मे या यूं कहें कि पूर्वाग्रहों से मुक्त हुए बगैर दिखाया जाता है. थोड़ा पीछे जाएं तो मौलाना आजाद लाइब्रेरी में पहले भी लड़कियों (अंडर ग्रेजुएट) को प्रवेश दिए जाने का मामला उठा था. यह करीब दो या ढ़ाई साल पहले की बात है, उसके बाद से लेकर अभी तक इस मामले में कोई प्रोग्रेस नहीं हुआ, न तो कोई प्रस्ताव रखा गया और न हीं यूनिवर्सिटी के भीतर ही इस मामले में कोई पहल की गई. टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के बाद यह मामला हाल में सुर्खियों में आया तो ‘मुस्लिम बुद्धिजीवियों’ के एक तबके को इसमें उनके समुदाय को जानबूझकर निशाना बनाए जाने की साजिश नजर आने लगी. जबकि हकीकत में यह मामला यूनिवर्सिटी की चारदीवारी के बीच से ही उठा था और इसकी आवाज वहीं की लड़कियों ने बुलंद की थी. मतलब कोई बाहरी हस्तक्षेप ने इस मसले को कृत्रिम तरीके से एएमयू या मुस्लिम जगत की ‘विच हंटिंग’ के लिए नहीं उठाया था.

देश के अन्य विश्वविद्यालयों से अगर कुछ बुनियादी बातों पर एएमयू की तुलना की जाए तो तस्वीर और ज्यादा साफ हो जाती है. मसलन एएमयू में को-एड की सुविधा नहीं है और मेडिकल या बीटेक जैसे कोर्स में अगर साथ पढ़ने, लैब या लाइब्रेरी में जाने की सुविधा है तो वह मजबूरी में दी गई आजादी है. मसलन शायद ही कोई यूनिवर्सिटी लड़के और लड़कियों के लिए अलग अलग मेडिकल या इंजीनियरिंग का लैब अफोर्ड कर सकता है. चाहे वह सेंट्रल यूनिवर्सिटी ही क्यों न हो. लेकिन सोशल साइंसेज से जुड़े पाठ्यक्रमों में ऐसी कोई जरूरत नहीं होती इसलिए एएमयू में लड़कियों को लड़कों से अलग रखा गया है. अगर एएमयू वाकई में लड़के और लड़कियों के बीच लैंगिक भेदभाव का समर्थक नहीं है तो उसे अंडरग्रैजुएट कोर्स में लड़के और लड़कियों के बीच लैंगिक भेदभाव की रेखा नहीं खींचनी चाहिए. दूसरा अंडरग्रेजुएट कोर्स की लड़कियों के हॉस्टल से भी निकलने पर पांबदी है, और उन्हें एक निश्चित समय के लिए बाहर निकलने की इजाजत होती है. देश के अन्य विश्वविद्यालयों में कम से कम ऐसी पहरेदारी तो नहीं है.
इस तुलना का यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि जेएनयू या डीयू देश के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय है और देश के अन्य विश्वविद्यालयों को इन्हीं की नकल करनी चाहिए. सवाल संविधान के तहत दिए गए बराबरी के हक का है और वह डीयू या एएमयू दोनों पर बराबर लागू होता है. एएमयू लड़के और लड़कियों के बीच के संबंध को लेकर उसी पारंपरिक दैहिक नजरिये का समर्थक है जो यह मानकर चलता है कि लड़के और लड़कियों के बीच शारीरिक संबंधों से इतर कुछ हो ही नहीं सकता. कम से कम वीसी का बयान तो इसी नजरिए का समर्थन करता है और जो भी पूरे प्रकरण को एएमयू को बदनाम करने की साजिश मान रहे हैं उनका भी नजरिया कमोबेश वीसी की लाइन के मुताबिक ही है.

मीडिया की भूमिका अगर इस मामले में गलत है (जैसा कि अक्सर कई संवेदनशील मामलों में होता है) तो इसका यह मतलब नहीं निकलता कि एएमयू में लड़कियों को सेंट्रल लाइब्रेरी में प्रवेश दिए जाने की मांग ही गलत है. जायज मांग के समर्थन में संघ या बीजेपी के आ जाने से वह नाजायज नहीं हो जाती है. हां यह अलग बात है कि संघ या बीजेपी को अक्सर ऐसे मामलों की तलाश में रहती है या फिर वह जानबूझकर ऐसे मामले क्रिएट करते रहते हैं ताकि एक समुदाय विशेष को निशाना बनाया जा सके. लोकतांत्रिक अधिकारों के संवर्द्धन के मामले में संघ या बीजेपी की भूमिका किसी से छिपी नहीं है, इसलिए उनके समर्थन या विरोध करने से अगर हम अपनी स्थिति तय करने लगे तो स्थिति बेहद भ्रामक हो जाएगी. रही बात शुरुआत करने की तो मेरा मानना है कि प्रगतिशीलता की हर पहल यूनिवर्सिटी से ही होनी चाहिए. लड़कियों को सेंट्रल लाइब्रेरी में प्रवेश दिए जाने के मामले में एएमयू को मीडिया को प्रतिबंधित करने की बजाय खुद के स्टैंड की समीक्षा करनी चाहिए जिसे किसी भी हाल में सही नहीं ठहराया जा सकता.

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