मुझे लगता है कि हमारे समाज में सेक्स को लेकर जिस तरह के दुराग्रह हैं, उन्हें तोड़ने का मौका अगर एक भी जगह मिलता है तो हमें नहीं चूकना चाहिए। जोहरा की जिंदादिली की हजारों मिसाल दी जाती हैं। वह बुरका नहीं पहनती थीं, वह खूब हंसती थीं, 100 साल की उम्र में भी काम करती थीं, आदि आदि। लेकिन कितने लोग होंगे जो यह कहने की हिम्मत रखेंगे को सेक्स और हास्य दोनों जिंदगी के पलड़ों में तोला जाए तो बराबर भार होगा? जोहरा ने यह कहने की हिम्मत की थी। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर, एक इंटरव्यू में यह बात कही। सेक्स की इच्छा रखना, और वह भी 97 साल की उम्र में, ऊपर से एक मुसलमान और फिर औरत। आमतौर पर हमारे पुरुषवादी पाठकों के लिए यह ‘भद्दी’ बात होगी। लेकिन क्या वाकई ऐसा है? क्या एक बूढ़ी, मुसलमान महिला का सेक्स की इच्छा रखना भद्दी बात है? या उसे सार्वजनिक तौर पर कहना भद्दी बात है? मुझे लगता है कि यह बात उठाई जानी चाहिए थी। सिर्फ उनकी शख्सियत का अलग पहलू दिखाने के लिए नहीं, बल्कि यह बताने के लिए भी कि सेक्स के मायने उतने दकियानूसी नहीं होते जितने इस पुरुषवादी समाज में आमतौर पर समझे जाते हैं। उनकी शख्सियत के बाकी पहलू तो आते ही रहते हैं, लेकिन मुझे लगा कि यह भी एक बहुत दिलचस्प, अलग और जरूरी पहलू है, जिसके मायने गहरे हो सकते हैं। हो सकता है इस खबर को पढ़कर कोई लड़की उन वर्जनाओं से आजाद हो पाए, जिन्हें जबर्दस्ती उसके गले में टांग दिया गया था। हो सकता है, इस खबर को पढ़कर कोई लड़का सोचे कि औरत स्वच्छंद होना बुरा नहीं। हो सकता है कि मुसलमानों को पिछड़ा और तंगदिमाग समझने वाला कोई व्यक्ति जान पाए कि मुसलमान औरतें भी आधुनिक हो सकती हैं।
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