जब नालंदा में इतिहास विनष्ट कर डाला गया! – डी एन झा

 

 

 

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नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष

 

यह पूर्व केंद्रीय मंत्री और भूतपूर्व पत्रकार अरुण शौरी को डी एन झा का उत्तर है, यह पूर्ण संस्करण है; जिसका संक्षिप्त संस्करण इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र में प्रकाशित हो चुका है।

मैं अरुण शौरी का लेख ‘कैसे नालंदा में इतिहास गढ़ा गया’(How history was made up at Nalanda) पढ़ कर हैरान था, जिन्होंने अपनी अज्ञानता को पाठकों के सामने ज्ञान के तौर पर पेश किया और ज़ाहिर है इसके लिए उन पर दया और उनके पाठकों से सहानुभूति बरतनी चाहिए। क्योंकि उन्होंने सीधे मेरा नाम लेते हुए मुझ पर प्रमाणों से छेड़खानी कर के प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के विध्वंस से सम्बद्ध ऐतेहासिक तथ्यों में हेरफेर के आरोप लगाए, मुझे लगता है कि उनके आरोपों का खंडन करते हुए, उनके प्रलाप की उपेक्षा कर देने की जगह सीधे हिसाब बराबर करना उचित है।     

भारतीय इतिहास कांग्रेस 2006 में (2004 नहीं जैसा कि शौरी ने कहा) मेरा प्रस्तुतिकरण, पुराकालीन नालंदा के ध्वंस को लेकर नहीं था, हालांकि अरुण शौरी ऐसा कह के पाठकों को गुमराह करते हुए उनकी आंखों में धूल झोंकते हैं। दरअसल वह ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच के प्रतिरोध पर आधारित था, जिसके लिए मैं मान्यताओं और मिथकों पर आधारित विभिन्न प्रमाण प्रस्तुत किए। इस संदर्भ में ही मैंने 18वीं सदी के तिब्बती आख्यान पाग-साम-जोन-ज़ेंग में बताई गई परम्परा का स्रोत सहित उल्लेख किया, जिसका उल्लेख बी एन एस यादव ने अपनी 12वीं सदी में उत्तर भारतीय समाज और संस्कृति नाम की पुस्तक में (पृ. 346) किया था। लेकिन अपनी संकीर्णता से मजबूर शौरी ने जल्दबाज़ी में इसे साहित्यिक चोरी बता दिया। मैं ये भी बताना चाहूंगा कि हिंदू कट्टरपंथी मेरे नहीं अपितु बी एन एस यादव के ही शब्द हैं, अतः कोट्स में हैं। कितना दुखद है कि एक मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त पत्रकार को यह भी बताना पड़ रहा है।

अभिमानी शौरी, तिब्बती संस्कृति की उस परम्परा का दम्भ से खंडन करते हैं, जिसमें कुछ चमत्कार के अंश है और यह पुरालेखों में है। शौरी किस तरह से सुम्पा के कार्य का उल्लेख करते हैं, उसका एक उत्तम उदाहरण है, “काकुट सिद्ध द्वारा बनवाए गए एक मंदिर में जब प्रवचन चल रहा था, कुछ युवा भिक्षु दो तीर्थिका (बौद्धों द्वारा हिंदुओं के लिए प्रयुक्त शब्दावली) भिक्षुओं पर मार्जक जल फेंक रहे थे। भिक्षुओं ने क्रुद्ध हो कर बौद्ध विश्वविद्यालय नालंदा के धर्मगंज के तीन तीर्थों को आग के हवाले कर दिया, जिसमें रत्न सागर, रत्न रंजक और पवित्र पुस्तकों के पुस्तकालय वाला नौ मंज़िल का मंदिर रत्नोदधि भी शामिल था (पृ. 92)। शौरी प्रश्न करते हैं कि कैसे दो भिक्षु एक इमारत से दूसरी में जा कर “पूरे विशालकाय और विस्तृत प्रांगण” को आग लगा सकते हैं। अब एक और गद्य पर नज़र डालिए, जिसे 17वीं शताब्दी के बौद्ध भिक्षु एवम् विद्वान तारनाथ ने “भारत में बौद्ध धर्म का इतिहास” पुस्तक में लिखा है,

काकुटसिद्ध द्वारा नालंदा में  निर्मित मंदिर के पवित्रीकरण के दौरान “युवा एवम् शरारती भिक्षुओं ने दो तीर्थिका भिक्षुओं पर मार्जक जल फेंक कर उन को द्वार से अंदर आने से रोकने के लिए उन पर भयंकर श्वान छोड़ दिए। ”इससे आक्रोशित भिक्षुओं में से एक अपनी आजीविका के प्रबंध हेतु चला गया तो दूसरे ने स्वयं को एक गहरे गड्ढे में अवस्थित कर स्वयं को “सूर्य साधना में लीन कर लिया।”पहले उस ने ऐसा 9 साल के लिए किया और फिर 3 साल और बाद उसने “मंत्रसिद्धि” प्राप्त कर ली। उसने एक बलि दी और अभिमंत्रित राख चारों ओर फैला दी, जिस से तत्काल एक “चमत्कारिक अग्नि” प्रज्जविल हुई और उस ने सभी 84 मंदिरों और पांडुलिपियों को लील लिया, जिस में से कुछ नौ मंज़िले रत्नोदधि मंदिर के ऊपर के तल से बहते जल से बच गई।

(भारत में बौद्ध धर्म का इतिहास – अनुवाद: लामा चिम्पा एवम् अलका चटोपाध्याय, सारांश पृ. 141-42)

अगर हम इन दोनों वृत्तांतों पर गहनता से विचारें, तो ये एक जैसे ही हैं। तीर्थिकों एवम् चमत्कारिक अग्नि की भूमिका दोनों में एक ही सी है। निश्चित तौर पर हम चमत्कारों को सत्य नहीं मान सकते हैं लेकिन पुरातन परम्पराओं के हिस्से के तौर पर उनकी अहमियत को कम कर के नहीं आंका जा सकता है, जो समय के साथ मज़बूत हुई हैं और सामूहिक श्रुतियों का हिस्सा बन गई हैं। न ही ब्राह्मणों और बौद्धों के मध्य शत्रुता के तत्व को नकारा जा सकता है, जो तिब्बती परम्परा में भी पहुंचा और उसकी यात्रा का 18वीं सदी के अंत बल्कि बाद तक हिस्सा रहा। सुम्पा के आख्यान को भी बौद्ध-तीर्थिका प्रतिरोध के संदर्भों में देखा जा सकता है; और तारनाथ के प्रमाणों के मुताबिक भी यह तार्किक लगता है। यही नहीं सुम्पा और तारनाथ में से कोई भी कभी भारत नहीं आया। इसका सीधा अर्थ यह है कि ब्राह्मणों और बौद्धों की शत्रुता की ये परम्परा तिब्बत तक इससे पहले पहुंच चुकी थी और वहां की बौद्ध परम्परा का अंग बनी, जिसे 17वीं-18वीं सदी के बौद्ध अभिलेखों में लिपिबद्ध किया गया। इन तथ्यों को लेकर किसी भी प्रकार की स्वीकृति या खंडन की समीक्षा का स्वागत होना चाहिए लेकिन किसी प्रबुद्ध इतिहासकार की ओर से न कि शौरी सरीखे इतिहास के धोखा करने वाले शख्स की ओर से।

मेरे द्वारा उल्लिखित तिब्बती परम्पराओं में से एक की विश्वसनीयता को न केवल बी एन एस यादव प्रमाणित करते हैं (जिन्हें शौरी अपनी अज्ञानता में मार्क्सवादी कहते हैं!)बल्कि अन्य भारतीय विद्वान जैसे कि आर के मुखर्जी (प्राचीन भारत में शिक्षा), सुकुमार दत्त (भारत के बौद्ध भिक्षु एवम् मठ), बुद्ध प्रकाश (भारतीय इतिहास एवम् सभ्यता के आयाम) और एस सी विद्याभूषण जो इस अभिलेख को बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच वास्तविक संघर्ष के फलस्वरूप ब्राह्मणों के आक्रोशित होने और सूर्य देवता की 12 साल तक तपस्या के बाद अग्नि को बलि देने और उसके बाद समिधा में जलते अंगारों को बौद्ध मंदिरों पर फेंकने से जोड़ते हैं, जिसने नालंदा के महान पुस्तकालय को नष्ट कर दिया, जिसे रत्नोदधि के नाम से जाना जाता था (भारतीय तर्कशास्त्र का इतिहास, डी आर पाटिल, पृ. 516, बिहार के पुरातात्विक अवशेष, पृ. 327)। उपर्लिखित विद्वान न केवल प्रसिद्ध हैं बल्कि उनकी ईमानदारी और विश्वसनीयता असंदिग्ध है। उनका मार्क्सवाद से दूर-दूर तक कोई सम्बंध नहीं है, जिसे शौरी अपनी अकड़ में लाल चीथड़ा कहते हैं।

अब तिब्बती परम्परा को समकालीन संदर्भों में तबाक़ात ए नसीरीउफ़ मिन्हाज ए सिराज के समकक्ष रखते हैं, जिसकी न केवल शौरी ग़लत व्याख्या करते हैं बल्कि उसे संदर्भों से ही अलग कर देते हैं। हालांकि इससे मेरे ब्राह्मणवादी कट्टरपंथ पर तर्क पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन उनकी ग़लत जानकारी की पोल खोलना भी अहम है, जिसे जी बी शॉ ने कहा है, अज्ञानता से भी अधिक घातक…। इस हिस्से को ग़ौर से पढ़िए,

“वह (बख़्तियार खिलजी) उस देश के अलग अलग हिस्सों में लूटमार करता रहा जब तक कि उसने बिहार के उससंरक्षित नगर पर आक्रमण नहीं किया। समझदार सलाहकारों की सलाह से वह कवचों से सुरक्षित 200 घुड़सवारों के साथ बिहार के उस किले के द्वार पर पहुंचा और अचानक हमला कर दिया। मुहम्मद बख्तियार के साथ दो फ़रग़ाना के विद्वान थे, एक निज़ाम उद् दीन और दूसरा सम्शम उद् दीन, जो इस क़िताब (मिन्हाज) के लेख थे; वो 641 ई. में लखनवाती से मिले और ये उसी के हवाले से है। जिस वक़्त ‘धर्म योद्धा’ किले के द्वार पर पहुंच कर हमला कर रहे थे, तब ये दोनों बुद्धिशाली भाई उसके सैनिक थे, जब मोहम्मद बख़्तियारने ख़ुद को द्वार पर खड़ा कर दिया और उन्होंने किले पर कब्ज़ा कर के ढेर सारा लूट का माल बरामद किया। उस स्थान के अधिकतर रहवासी ब्राह्मण थे, उन सभी के शीश मुंडे हुए थे और उन सभी का क़त्ल कर दिया गया। वहां पर भारी संख्या में पुस्तकें थी; जब उन किताबों को मुस्लिमों ने देखा तो उन्होंने हिंदुओं से उन पुस्तकों का आयात सम्बंधी  ब्यौरा देने का आदेश दिया; लेकिन सभी हिंदू मारे जा चुके थे। उन किताबों की जानकारी मिलने के बाद ज्ञात हुआ कि वह पूरा शहर एक महाविद्यालय था, और हिंदी ज़ुबान में वो उसे बिहार विद्यालय कहते थे” (तबाक़ात ए नासिरी, अंग्रेज़ी अनुवाद – एच जी रावर्टी, पृ. 551-52)

उपर्लिखित उल्लेख बिहार के किले को बख़्तियार के हमले का निशाना बताता है। जिस किलेनुमा मठ पर बख़्तियार ने कब्ज़ा किया था, उसे “औदांद बिहार अथवा ओदांदपुरा विहार” कहा जाता था (बिहार शरीफ़ में ओदांतपुरी, जिसे बाद में बिहार कहा गया)। यह अदिकाश इतिहासकारों का मत है लेकिन सबसे अहम तौर पर जदुनाथ सरकार का भी, जो भारत में साम्प्रादायिक इतिहास के पुरोधा हैं (बंगाल का इतिहास, भाग 2, पृ. 3-4)। मिन्हाज निश्चित तौर पर नालंदा की बात नहीं कर रहा, वह मुश्किल से ही बिहार के किले की लूटमार की बात करता है (हिसार ए बिहार)। लेकिन शौरी कैसे संतुष्ट हो सकते हैं, जब तक कि बख़्तियार द्वारा नालंदा की लूटमार साबित न हो जाए। चूंकि बख़्तियार मगध के क्षेत्र में अपने अभियान पर था, अतः शौरी सोचते हैं कि नालंदा उस ने ही नष्ट किया होगा, और चमत्कारिक रूप से वह उसके लिए उद्धरण ढूंढ लेते हैं, जिसमें उस स्थान की बात ही नहीं है। नतीजतन एक अहम ऐतेहासिक घटना, उनके मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह का शिकार हो जाती है। अपने उत्साह में वे उस तथ्य को गढ़ने और गड़बड़ाने लगते हैं कि बख़्तियार नालंदा गया ही नहीं; “वह मुस्लिम विजय अभियान का शिकार होने से बच गया, क्योंकि वह दिल्ली से बंगाल के मुख्य मार्ग पर नहीं पड़ता था बल्कि अलग रास्ते पर था।“ (ए एस ऑल्टेकर, रोरिक्स की धर्मस्वामी की जीवनी के परिचय में)। ओदांतपुरी पर हमले के कुछ समय पश्चात जब तिब्बती भिक्षु धर्मस्वामी 1234 ई. में नालंदा गया तो उसे कुछ इमारतें मिलीं जो सुरक्षित थीं और उनमें कुछ पंडित और भिक्षु निवास करते थे तथा महापंडित राहुलश्रीभद्र से निर्देशित थे। दरअसल बख़्तियार संभवतः बिहारशरीफ़ से बंगाल के नदिया की ओर झारखंड की पहाड़ियों और जंगलों से हो कर बढ़ा, जो घटनाक्रम के मुताबिक , 1295 ई. के अभिलेखों में सबसे पहले मिलता है (भारत का वृहत इतिहास, भाग 4, पृ. 601)। मैं ये भी कहना चाहूंगा कि यह पूरी किताब, प्रबुद्ध इतिहासविद्, जहां से संदर्भित लेख लिया गया है, घुड़सवार सेना के रवैये से लेकर ऐतेहासिक प्रमाणों से भरी है और भारतीय अतीत को लेकर विपरीत धारणा देती है।

यह नकारना न तो सम्भव है और न ही ज़रूरी है कि इस्लामिक आक्रमणकारियों ने बिहार और बंगाल के हिस्सों को जीता और प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों को नष्ट किया। लेकिन अरुण शौरी के बख़्तियार खिलजी के नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने और नष्ट करने से सम्बंध जोड़ने की कोशिश, इतिहास से जानबूझ कर खिलवाड़ करने का अद्भुत उदाहरण है। ज़ाहिर है कि सप्ताहांत भर के लिए इतिहासकार बन जाने वाले शौरी और उनके जैसे अन्य हमेशा ही ऐतेहासिक तथ्यों से खिलवाड़ के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन इससे सिर्फ और सिर्फ गंभीर ऐतेहासिक शिक्षा की कमी ही सामने आती है।

शौरी पहले ही निंदनीय और मिथ्यावादी इमीनेंट हिस्टोरियन के 1998 में एनडीए सरकार के दौरान प्रकाशन से अच्छा खासा विवाद खड़ा कर चुके थे और अब 16 साल बाद, उन्होंने उसका दूसरा संस्करण जारी कर दिया है। वे भाजपा के सरकार में आते ही अपने इतिहासकार अवतार में आ जाते हैं, अपने आकाओं को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं और उनकी थाली से टुकड़े गिरने की प्रतीक्षा करते हैं। उनके प्राचीनकाल को लेकर विचार विश्व हिंदू परिषद्, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और उनकी असंख्य अनुषांगिक इकाईयों और गुंडों से अलग नहीं हैं; जो विरोधी विचारों की पुस्तकें जलाने, उनके मुताबिकईशनिंदक कलाकृतियों का ध्वंस, भारतीय इतिहास का भ्रामक संस्करण बनाने और असहिष्णुता की संस्कृति का पोषण करने वाले हैं। मेरे गोमांस खाने को लेकर अध्ययन के प्रकाशन के बाद इन्होंने मेरी गिरफ्तारी की मांग की थी और जेम्स लेन की शिवाजी पर किताब आने के बाद उसको प्रतिबंधित करवा दिया। यह संयोग नहीं है कि शौरी, दीना नाथ बत्रा जैसे लोगों के साथ सौहार्दपूर्ण दिखते हैं, जिन्होंने ए के रामानुजन के रामायण परम्परा की विभिन्नता को लेकर निबंधों; हिंदुत्व को लेकर वैकल्पिक नज़रिए पर वेंडी डोंगियर की पुस्तक; 1969 से अहमदाबाद में साम्प्रदायिकता और लैंगिक हिंसा पर मेघा कुमार के शोध और आरएसएस की निंदा करने वाली शेख बंदोपाध्याय की पाठ्य पुस्तक को निशाने पर लिया।

संभवतः अरुण शौरी ने अपने छद्म, ग़लत और गढ़े गए ऐतेहासिक साक्ष्यों को पुनः दूसरे संस्करण में प्रस्तुत कर के एक ताज़ा युद्ध का उद्घोष कर दिया है, जिससे बत्रा और उनके जैसों को पूरा लाभ मिल सके।

(डी एन झा, दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहे हैं। उनकी अहम क़िताबें अर्ली इंडिया और द मिथ ऑफ द होली काऊ हैं। )

D N Jha is Former Professor and Chair, Department of History, University of Delhi. His important publications include Early India and The Myth of the Holy Cow.

 

Translation by Mayank Saxena for Hillele.org.

The Complete Article was First Published in Kafila -http://kafila.org/2014/07/09/how-history-was-unmade-at-nalanda-d-n-jha/

Grist to the reactionary mill

Also Read: http://indianexpress.com/article/opinion/columns/how-history-was-made-up-at-nalanda/

 

 

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