केवल लेबर लॅा रिफॅार्म से नहीं बदलेगी मैन्युफैक्चरिंग की किस्मत – Aman Sethi

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केंद्र में सत्ता में आ चुकी भारतीय जनता पार्टी ने ने अपने घोषणा पत्र में ‘पुराने पड़ चुके, जटिल और परस्पर विरोधी प्रावधानों वाले ‘ श्रम कानूनों की समीक्षा का वादा किया था।  नरेंद्र मोदी अब देश के पीएम हैं, और ऐसे में इंडस्ट्री को उनसे स्वभाविक उम्मीदें हैं कि वह अपने उन वादों को पूरा करेंगे।  हालांकि जिस तरह से इंडियन वर्क फोर्स और कॉन्ट्रैक्ट हायरिंग में इजाफा हो रहा है, उसे देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि श्रम कानूनों में सुधार से भारतीय मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री की किस्मत का कायापलट होगा। फिक्की में लेबर एंड इंप्लायमेंट के निदेशक राजपाल सिंह के मुताबिक, ‘हम  मेजॉरिटी की कीमत पर एक छोटे वर्कफोर्स को बचाने के लिए कठोर नियमन की व्यवस्था में रह रहे हैं।’ उन्होंने कहा, ‘कई सारे कानूनों की मौजूदगी से अलग-अलग विभागों की जांच से गुजरना पड़ता है, जिसे सरल बनाने की जरूरत है।’ राजपाल के मुताबिक इन बदलावों से कंपनियों को स्थाई कर्मचारियों को नौकरी से निकालने और उनकी छंटनी करने में सहूलियत होगी और साथ ही कर्मचारियों के हड़ताल पर जाने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकेगा।

पर पहले से कंपनियों को ठेका कर्मचारियों को नौकरी से निकालने का अधिकार प्राप्त है, और ऐसा इसलिए कि कंपनियां उन कर्मचारियों की नियुक्ति सीधे तौर पर नहीं करती हैं, तो फिर यह सवाल उठता है कि आखिर इंडस्ट्री चाहती क्या है…

कामगारों और मजदूर संघों तकी माने तो समस्या कानून को लेकर नहीं है, बल्कि उसके पालन को लेकर है। जबकि मजदूरों का कहना है कि कंपनियां लगातार श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाती हैं और यह काम श्रम मंत्रालय की नाक के नीचे होता है। ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के राष्ट्रीय महासचिव डीएल सचदेवा ने कहा, ‘श्रम कानूनों को लागू करने के मामले में स्थिति बेहद खराब है और कंपनियां इसकी आड़ में मजदूर संघों को भंग करने और उनके गठन को रोकने समेत कई अवैध काम करती हैं।’ उन्होंने कहा कि श्रम कानूनों के उल्लंघन के अधिकतर मामले सामने तक नहीं आते। सचदेवा के मुताबिक, ‘हम जिस तरीके से उनका बर्ताव  देख रहे हैं उस हालत में हम उनपर भरोसा नहीं कर सकते। निश्चित तौर पर इन चीजों को सुनिश्चित करने के लिए कानूनी प्रावधान होने ही चाहिए।’

भारत में कुल 47 केंद्रीय कानून और 200 से अधिक राज्यों के कानून हैं, जो मजदूर और कंपनियों के बीच के श्रम संबंधों का नियमन करते हैं, पर इसके बावजूद कठोर कानूनों और घटती औद्योगिक उत्पादकता अकादमिक जगत में बहस का मुद्दा बना हुआ है।

जॉब और इंप्लायमेंट के बीच के अंतर्संबंधों पर 2014 के रिव्यू में श्रम मामलों के अर्थशास्त्री गॉर्डन बेचरमैन लिखते हैं, ‘भारत में रोजगार की सुरक्षा से जुड़े कानूनों का नकारात्मक प्रभाव ही उभर कर सामने आता है। हालांकि सबसे जटिल सवाल यह है कि ऐसे कानूनों की वजह से देश की आर्थिक तरक्की को कितना धक्का लगता है।’

उनकी स्टडी में यह बात सामने आई कि जॉब सिक्योरिटी प्रभावी होने पर भी कुल रोजगार की स्थित पर बहुत थोड़ा ही असर पड़ता है, लेकिन इससे प्रशिक्षित युवा कामगारों को हाशिए पर पड़ी महिलाएं और गैर प्रशिक्षित कामगारों की कीमत पर फायदा होता है।

वर्ल्ड बैक में साउथ एशिया मामलों के दिग्गज इकॉनामिस्ट मार्टिन रेमा के मुताबिक, ‘श्रम सुधारों से आज के कामगारों को फायदा होगा पर उससे कहीं ज्यादा गारमेंट सेक्टर जैसे श्रम आधारित सेक्टर  को फायदा पहुंचेगा। ‘ उन्होंने कहा, ‘लेकिन कंपनियों की तरक्की के राह में और कई सारी समस्याएं हैं, जिनमें अपर्याप्त बुनियादी ढांचा, बिजली की कमी और लाजिस्टिक की खराब हालत शामिल हैं, केवल श्रम सुधारों के जरिए भारत को मैन्युफैक्चरिंग का पावर हाउस नहीं बनाया जा सकता।’ वर्ल्ड बैंक के सर्वे में केवल 15 फीसदी कंपनियों ने ही श्रम कानूनों को ग्रोथ की राह में मौजूद सबसे बड़ी बाधा करार दिया।

श्रम कानूनों के दायरे में कामकाजी भारतीयों का एक छोटा हिस्सा ही आता है, जिनकी इंफॉर्मल इकॉनमी में हिस्सेदारी 90 फीसदी से भी अधिक है। एसोचैम के सर्वे के मुताबिक 2013 में भारत में ठेका मजदूरी में 39 फीसदी का इजाफा हुआ। देश का सर्विस सेक्टर पूरी तरह से कॉन्ट्रैक्ट मजदूरों पर निर्भर रहा है। एसोचैम के सर्वे बताता है कि ऑटो मोबाइल सेक्टर में  56 फीसदी, तो मैन्युफैक्चरिंग में 52 फीसदी ठेका मजदूर काम करते हैं।

कॉन्ट्रैक्ट लेबर की सप्लाई करने वाली भारत की बड़ी कंपनियों में से एक टीम लीज के मनीष सब्बरवाल के मुताबिक, ‘पिछले 20 सालों में असंगठित क्षेत्र में 100 फीसदी से अधिक रोजगार के मौकों का श्रृजन हुआ है।’ सब्बरवाल भी जॉब सिक्योरिटी को सबसे बड़ी रूकावट मानते हैं। फिक्की जैसे संगठन  जहां देश में मौजूद कई कानूनों और जटिल व्यवस्था की जगह एक आसान और सरल व्यवस्था चाहते हैं, वहीं सब्बरवाल श्रम को पूरी तरह से राज्य के हाथों में सौंपने की वकालत करते हैं।

सब्बरवाल एप्रेंटिसशिप एक्ट 1961 के कठोर प्रावधानों और दंडात्मक उपायों का जिक्र करते हुए बताते हैं कि इसकी वजह से नियोक्तओं ने एप्रेंटिस पर नियुक्ति करनी बंद कर दी। उन्होंने कहा कि इस कानून में संशोधन की मदद से नियुक्ति की प्रक्रिया में आमूल-चूल बदलाव लाया जा सकता है, जिससे लाखों युवाओं को रोजगार के मौके मुहैया कराए जा सकते हैं। पर एटक के सचदेवा एप्रेंटिसशिप एक्ट के दायरे को बढ़ाए जाने पर चिंता जाहिर करते हैं। टीम लीज द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के मुताबिक नौकरी की शुरुआत में पर्मानेंट और कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कर्मचारियों की सैलरी के बीच कोई खास अंतर नहीं होता और उन्हें न्यूनतम मजदूरी का भुगतान किया जाता है। एप्रेंटिसशिप के विस्तार को लेकर सचदेवा को इस बात की आशंका है कि इससे इंडस्ट्री को अपने कामगारों को कम पैसे देकर काम कराने का एक और मौका मिल जाएगा, क्योंकि एप्रेंटिस को सामान्य कामगारों के बराबर भुगतान नहीं किया जाता।

अर्थशास्त्री सीपी चंद्रशेखर के मुताबिक, ‘जिस तरह से ठेका मजदूरी का चलन बढ़ रहा है, उसमें नौकरी से निकाले जाने और नौकरी पर रखे जाने की प्रक्रिया काफी आसान होती जा रही है।’ उन्होंने कहा, ‘अगर वाकई में कहीं सुधारों की आवश्यकता है, तो यह काम राज्य, लेबर प्रतिनिधियों और कंपनियों के बीच त्रिपक्षीय बातचीत के जरिए किया जाना चाहिए, ना कि निजी क्षेत्र के प्रोपेगेंडा के आधार पर।’

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