(राग दरबारी के अंश में थोड़ा शब्दों का हेर-फेर कर के ये अंश लिखा गया है…राग दरबारी के प्रेमी या पाठक ही पढ़ें…क्योंकि अन्य के लिए समझना थोड़ा मुश्किल होगा…बुरा न मानें-दिल पर न लें…लेना है तो शांति से काम लें…)
उन्होंने लोगों के दो वर्ग बना रखे थेः राष्ट्रवादी और सेक्युलर। वे राष्ट्रवादियों की प्रकट रुप से और सेक्युलरों की गुप्त रुप से सहायता करते थे। देश के मामले में उनकी एक यह थ्योरी थी कि सभी समस्याएं संस्कृति के नाश से पैदा होती हैं। देश के युवा लड़कों का तेजहीन, मरियल चेहरा देखकर वे प्रायः इस थ्योरी की बात करने लगते थे। अगर कोई कह देता कि लड़को की तन्दुरुस्ती ग़रीबी और अच्छी खुराक न मिलने से बिगड़ी हुई है, तो वे समझते थे कि वह घुमाकर संस्कृति और राष्ट्रवाद के महत्व को अस्वीकार कर रहा है, और चूँकि संस्कृति-राष्ट्रवाद को न मानने वाला सेक्युलर-देशद्रोही होता है इसलिए ग़रीबी और खुराक की कमी की बात करने वाला भी देशद्रोही-सेक्युलर है।
संस्कृति के नाश का क्या नतीजा होता है, इस विषय पर वे बड़ा ख़ौफ़नाक भाषण देते थे। सुकरात ने शायद उन्हें या किसी दूसरे को बताया था कि ज़िन्दगी में तीन बार के बाद चौथी बार संस्कृति का नाश करना हो तो पहले अपनी कब्र खोद लेनी चाहिए। इस इण्टरव्यू का हाल वे इतने सचित्र ढ़ंग से पेश करते थे कि लगता था, संस्कृति और राष्ट्रवाद पर सुकरात उनके आज भी अवैतनिक सलाहकार है। उनकी राय में राष्ट्रवाद-संस्कृति न रखने से सबसे बड़ा हर्ज यह होता था कि आदमी बाद में चाहने पर भी संस्कृति का नाश करने लायक नहीं रह जाता था। संक्षेप में, उनकी राय थी कि संस्कृति का नाश कर सकने के लिए संस्कृति का नाश न होने देना चाहिए।
उनके इन भाषणों को सुनकर कॉलिज के तीन-चौथाई लड़के अपने जीवन से निराश हो चले थे। पर उन्होंने एक साथ आत्महत्या नहीं की थी, क्योंकि वैद्यजी के दवाखाने का एक विज्ञापन थाः
‘जीवन से निराश नवयुवकों के लिए आशा का संदेश!’
आशा किसी लड़की का नाम होता, तब भी लड़के यह विज्ञापन पढ़कर इतने उत्साहित न होते। पर वे जानते थे कि सन्देश राष्ट्रवाद नाम एक गोली की ओर से आ रहा है जो देखने में सुर्ती-जैसी है, पर मसल कर मुंह के कोने में जाते ही रगों में बिजली-सी दौड़ाने लगती है।
एक दिन उन्होंने रंगनाथ को भी राष्ट्रवाद के लाभ समझाये। उन्होंने एक अजीब-सा कुर्सी-विज्ञान बताया, जिसके हिसाब से कई मन पूंजी खाने से कुछ छटाँक माहौल बनता है, माहौल से पॉलिटिक्स, पॉलिटिक्स से वोटर और, और इस तरह आखिर में सत्ता-शक्ति मिला कर धर्म की एक बूँद बनती है। उन्होंने साबित किया कि धर्म की एक बूँद बनाने में जितना ख़र्च होता है उतना एक ऐटम बम बनाने में भी नहीं होता। रंगनाथ को जान पड़ा कि हिन्दुस्तान के पास अगर कोई कीमती चीज है तो धर्म ही है। उन्होंने कहा कि धर्म के हज़ार दुश्मन हैं और सभी उसे लूटने पर आमादा हैं। अगर कोई किसी तरकीब से अपना धर्म बचा ले जाये तो, समझो, पूरा चरित्र बचा ले गया। उनकी बातों से लगा कि पहले हिन्दुस्तान में धर्म-रक्षा पर बड़ा ज़ोर था, और एक ओर घी-दूध की तो दूसरी ओर धर्म की नदियाँ बहती थीं। उन्होंने आख़िर में एक श्लोक पढ़ा जिसका मतलब था कि धर्म की एक बूँद गिरने से आदमी मर जाता है और एक बूँद उठा लेने से सत्ता हासिल करता है।
(ये पूरा हिस्सा श्री लाल शुक्ल का ही लिखा हुआ है, नए लेखक ने सिर्फ कुछ शब्द बदल कर पायरेसी की है…ये ओरिजिनली पायरेटेड है…)
बहुत ज़िद्दी होते हैं
कबूतर
और गिलहरियां
विस्थापित कर दिए जाने के बावजूद
शक्तिशाली मनुष्य के सामने
हार नहीं मानते
लौट आते हैं फिर-फिर
चहलकदमी करते हैं
इंसानों के खड़े कर दिए गए
विशाल ढांचों के
आंगनों में
कूदते हैं
इस छत से उस छत
करते हैं बीट
खुजलाते हैं पांखें
बैठ किसी रोशनदान या खिड़की में
कब्ज़ाए रखते हैं
मुंडेर, शेड और खिड़कियां
पानी की टंकियां
बंद पड़े कमरे और पंखे
आसानी से
बल्कि किसी भीा तरह से
अपनी ज़मीन
अपनी जगह नहीं छोड़ते हैं
कबूतर और गिलहरियां
आप जीत जाते हो
लेकिन वो हारते नहीं हैं
छोड़ कर नहीं जाते
अपना घर…अपनी ज़मीन
