24 अप्रैल को दोपहर 2 बजे तक दिन बिल्कुल अन्य दिनों की तरह ही था. मैं दफ्तर के लिए निकल चुका था. गाड़ी चलाते वक्त ही मेरे सहयोगी विकास का फोन आया. मैंने कहा कि दफ्तर पहुंचकर आपको फोन लगाता हूं. इसके थोड़ी देर बाद ही हमारी मुलाकात हुई, विकास ने मिलते ही कहा-सागर भइया ने खुद को फांसी लगा ली?
सागर कॉलेज में मेरे साथ थे और विकास हमारे जूनियर. विकास ने बताया कि 23 अप्रैल को यूपी के प्रतापगढ़ में घर पर सागर ने खुदकुशी कर ली.
मेरी सागर से आखिरी मुलाकात करीब छह से आठ महीने पहले हुई थी जबकि पहली मुलाकात 2006 में आरएलए कॉलेज के ऑरिएंटेशन प्रोग्राम के दौरान हुई थी.
सागर के साथ हुए हादसे की पूरी पड़ताल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उसकी मौत के बाद आईआईएमसी एल्युमिनाई एसोसिएशन की चुप्पी और सोशल साइट्स पर सक्रिय पदाधिकारियों के वॉल पर आईआईएमसी के एक ‘आम’ छात्र सागर का जिक्र भी ना होना, ना केवल हैरत भरा है बल्कि छात्र हितों का दावा करने वाले इस संगठन की प्रासंगिकता पर भी कई सवाल खड़े करता है.
और सागर को जानना इसलिए भी जरूरी है कि अमूमन आत्महत्या को हमारे समाज में कायरता से जोड़कर देखने की परिपाटी है जोकि कम से कम सागर के मामले में सही नहीं है. इसे कोई और जाने या ना जाने, मैं बखूबी जानता हूं कि सागर ऐसा नहीं था. तो सागर कैसा था?
मैं साल 2006 में ही दिल्ली आया था और शायद सागर भी. सागर जब भी मिलता हंसते हुए गर्मजोशी से मिलता. जब दिल्ली विश्वविद्यालय में हमने 2008 में हिंदी पत्रकारिता विभाग के खिलाफ आंदोलन की कमान संभाली तो सागर को करीब से जानने का मौका मिला. हम सभी जहां कैंपस में धरना-प्रदर्शन और प्रशासन के खिलाफ रणनीति तैयार करने में जुटे थे, वहीं सागर विश्वविद्यालय के हर कॉलेज के हिंदी पत्रकारिता विभाग में छात्रों के सामने हमारी मांगों और मुद्दे को रख रहा था. दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में छात्रों के बीच जाने की जिम्मेदारी मेरे और सागर पर थी.
पूरे आंदोलन के दौरान सागर को कभी भी कुछ भी समझाने की जरूरत नहीं पड़ती. उसे पता होता था कि कहां क्या बोलना है? करीब 10 दिनों की तैयारी के बाद पुलिस-प्रशासन को इत्तेला किए बगैर हमने दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस में वीसी ऑफिस का घेराव किया.
सागर जैसे साथियों की कोशिशों का नतीजा सामने था. लगभग हिंदी पत्रकारिता वाले सभी कॉलेजों के छात्रों ने हमारे आंदोलन में हिस्सा लिया और डीयू के डीन गुरमीत सिंह और हिंदी विभाग के अध्यक्ष रमेश गौतम हमारी मांग सुनने को मजबूर हुए. उन्होंने निश्चित समय अंतराल के भीतर हमारी मांगों पर ध्यान देने का आश्वासन दिया.
इस बीच 2009 में मैं आईआईएमसी आ गया. सागर भी 2009 में आईआईएमसी की परीक्षा में शामिल हुआ, लेकिन उसका दाखिला नहीं हो पाया. उसे एडमिशन एक साल बाद मिला. इस एक साल के दौरान सागर कहीं नौकरी भी कर रहा था और ग्रेजुएशन के दौरान भी वह कुछ न कुछ लिखता रहता था, बतौर फ्रीलांसर. सागर का आईआईएमसी में आने का एकमात्र मकसद बेहतर नौकरी की तलाश थी, एक वैसे प्लेटफॉर्म या ब्रांड की तलाश जहां से उसे लगता था कि मुश्किलें कुछ कम हो जाएंगी. सागर का आकलन अपनी जगह सही था या गलत…..इस पर फैसला देना जल्दबाजी होगी.
सागर आईआईएमसी पर दांव लगा रहा था…अपना सब कुछ. मीडिया में करियर बनाने के लिए शायद उसे यह सबसे मुनासिब रास्ता लगा होगा.
सागर अपनी तरफ से हर कोशिश कर रहा था और उसने वह हर मुमकिन कोशिश की भी होगी……शादी के बाद दिल्ली से बनारस जाने का फैसला भी ऐसी ही एक कोशिश थी. बनारस से घर पास था और पैसे के लिहाज से भी दिल्ली के मुकाबले बनारस ज्यादा मुनासिब शहर है.
आईआईएमसी से पढ़ाई पूरी करने के बाद सागर ने गुजरात में किसी एनजीओ के साथ काम किया, फिर राजस्थान पत्रिका मेंकुछ समय इंदौर में भी रहा. फिर वापस दिल्ली आया जब उसे हिंदुस्तान में नौकरी मिली. इस दौरान सागर ने शादी कर ली, करीब आठ-नौ महीने पहले. सागर लगातार संघर्ष कर रहा था और हिंदुस्तान में नौकरी के लिए उसे काफी मशक्कत करनी पड़ी थी. लेकिन हर व्यक्ति के बर्दाश्त करने की और संघर्ष करने की भी क्षमता होती है. यह बहुत हद तक आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है. इसलिए कुछ लोग सहूलियत के साथ संघर्ष का आनंद लेते हैं जबकि कुछ अपनी जिंदगी दांव पर लगा रहे होते हैं.इसके अलावा उनके पास कुछ होता भी नहीं है वैसे.
सागर की मौत की कहीं कोई खबर नहीं छपी. जिस दैनिक अखबार के लिए वह काम कर रहा था वहां भी नहीं. अमर उजाला में एक कॉलम में खबर छपी और उसने एक पत्रकार की मौत को एक युवक की खुदकुशी में बदल दिया. अखबारों से शिकायत करने का कोई खास मतलब नहीं बनता.
सागर आईआईएमसी परिवार का हिस्सा था. इस मामले में सबसे दुखद पहलू आईआईएमसी एल्युमिनाई एसोसिएशन का रवैया रहा. सागर को एल्युमिनाई समझा ही नहीं गयाया फिर सागर एल्युमिनाई एसोसिएशन के दायरे में आता ही नहीं था…और केवल सागर ही क्यों, ऐसे कई और हैं जो एल्युमिनाई एसोसिएशन के ‘एल्युमिनाई की अर्हताओं’को पूरा नहीं करते हैं. न तो वे ‘कैंपस में कपल बन पाए’और न ही बाहर जाकर ‘नेटवर्किंग’ की मदद से अपनी जगह सुरक्षित कर पाए.
जब सोशल मीडिया पर कुछ साथियों ने इस एसोसिएशन को धिक्कारते हुए कहना शुरू किया कि ‘सागर भी एल्युमिनाई था और एल्युमिनाई एसोसिएशन को कम से कम एक शोक सभा का तो आयोजन करना ही चाहिए’तब जाकर इस एसोसिएशन ने अपने ‘मामूली एल्युमिनाई’ की याद में 26 अप्रैल को ‘रिमेंबरिंग सागर मिश्रा’का संक्षिप्त संदेश जारी कर बताया कि 27 अप्रैल को संस्थान में सागर मिश्रा को याद करने के लिए एक शोक सभा का आयोजन किया गया है. जबकि अधिकांश लोगों को इस बात की जानकारी 24 अप्रैल तक हो चुकी थी.
एल्युमिनाई एसोसिएशन में प्रेजिडेंट मुकेश कौशिक को मिलाकर करीब तीन दर्जन से अधिक ‘पदाधिकारी’हैं लेकिन शोक सभा में बमुश्किल कुछ ही पदाधिकारी पहुंचे. कुछ तो ऐसे पदाधिकारी भी थे जो वहां पहुंचे तो नहीं लेकिन शोक सभा की तस्वीर उनकी फेसबुक वॉल पर सभा खत्म होने से पहले ही चस्पा हो गई.
पदाधिकारियों की नेटवर्किंग बैकग्राउंड में भी तेजी से काम कर रही थी.
आईआईएमसी एल्युमिनाई एसोसिएशन साल में एक ‘महत्त्वपूर्ण’ आयोजन करता है और इसमें ‘कैंपस वाले कपल’जैसे पुरस्कार वितरित किए जाते हैं.पार्टी और डीजे का शोर होता है और इसमें पूरे जोश के साथ बड़ी संख्या में एल्युमिनाई शिरकत करते हैं. लेकिन जब एक एल्युमिनाई हमें छोड़ कर चला जाता है तो उसकी याद में महज एकाध दर्जन भर एल्युमिनाई!
एल्युमिनाई एसोसिएशन सोशल मीडिया में समय-समय पर अपने बैठकों की तस्वीरें भी जारी करता है जिसका उद्देश्य आज तक समझने की कोशिश कर रहा हूं. बैठक में शामिल चेहरे चमकते रहते हैं, सामने खाने की मेज होती है और सब कुछ अच्छा-अच्छा लगता है. पर इन बैठकों में फुर्सत के पल निकालकर शामिल होने वाले पदाधिकारियों को बस 27 अप्रैल को ही फुर्सत नहीं मिली. रविवार जो था और सागर मिश्रा, कौन सागर मिश्रा…..कोई बड़ा आदमी था, बड़ी शख्सियत था, नहीं तो, तो फिर ठीक है न.
रविवार को क्रांतिकारी एल्युमिनाइयों की क्रांति भी सो गई थी. सागर न तो राइट था और नहीं लेफ्ट, क्या यह उसका सबसे बड़ा गुनाह था?
टेलीविजन और अखबारों में भी कोई खबर नहीं थी, पब्लिसिटी की दूर-दूर तक कोई गुंजाइश नहीं थी, फिर सरोकार दिखाने और सरोकारी होने का क्या फायदा? मीडिया संस्थानों की चुप्पी तो समझ में आती है पर आपका समझ नहीं पा रहा हूं.
सागर एक अनुभवी और प्रशिक्षित पर मामूली पत्रकार था जो बस नौकरी कर रहा था और ऐसे लोगों के रहने या न रहने से कोई फर्क पड़ता है?
आईआईएमसी के अन्य एल्युमिनाई की तरह ही सागर में वह सभी योग्यताएं थी, फिर यह भेदभाव और उपेक्षा क्यों ? इतना सन्नाटा क्यों?
कल पहली बार आईआईएमसी एल्युमिनाई के पदाधिकारियों की सूची पर नजर डाली और उसमें कुछ ऐसे नाम दिखे जिन्हें मैं निजी तौर पर जानता हूं और न केवल जानता हूं बल्कि उनकी प्रतिबद्घता और विचारों की वजह से हम अच्छे दोस्त भी हैं. कुछ सीनियर तो कुछ जूनियर. उन्हें शोक सभा में नहीं देखकर निराशा हुई पर आप किसी को शोकाकुल होने के लिए बाध्य नहीं कर सकते और जरूरी नहीं कि शोकसभा में आकर ही शोक प्रकट किया जाए. अगर इसी तर्क को मान लें तो फिर खुश आप घर पर भी हो सकते हैं। फिर उसके लिए डीजे पार्टी में जाने की जरूरत क्यों? ‘कैंपस वाले कपल’का अवार्ड नहीं मिलने से आप ‘संजय वन वाले कपल’ तो नहीं हो जाएंगे.
एल्युमिनाई एसोसिएशन की किसी भी बैठक या पार्टी में शामिल नहीं होने के फैसले से समझौता करते हुए, अपने कई दोस्तों की सलाह को नजरअंदाज करते हुए और कई उलझनों के बावजूद आखिरकार मैंने 27 अप्रैल को एल्युमिनाई एसोसिएशन द्वारा आयोजित शोक सभा में जाकर इन मुद्दों को उठाने का फैसला किया. दोस्तों की यह बात सही साबित प्रतीत हुई कि इस एसोसिएशन से कुछ भी उम्मीद करना ही बेमानी है. शोक सभा को पूरी तरह से शोक सभा ही बना कर रखने की तैयारी थी.
यह किस प्रकार का एल्युमिनाई संगठन है कि रंगीन फेस्टिवल से इतर यह अगर किसी शोक सभा के लिए कॉल करता है तो बस 20 के आसपास ही लोग जमा होते हैं. जबकि इसमें कुछ वैसे चेहरे भी थे जो अपने सरोकारों के लिए जाने जाते हैं और उन्हें बुलाने के लिए किसी बुलावे की जरूरत नहीं होती और कुछ वैसे लोग भी जिन्होंने आईआईएमसी में अपनी पढ़ाई के दौरान दोस्तों की तरफ हमेशा अपना हाथ बढ़ाया.
सागर अपनी परिस्थितियों से जूझते हुए गया था। उसे एक हेल्पिंग हैंड की जरूरत थी, उसे एक सहारा चाहिए था, जो उसे नहीं मिला. उसके संघर्ष के दिनों में एल्युमिनाई एसोसिएशन डीजे पर थिरक रहा था, पार्टी कर रहा था.
करीब 50 पदाधिकारियों का चुनाव भी मेरी समझ से परे है और अगर यह वाकई में इतना बड़ा संगठन है, इतनी जिम्मेदारियां हैं और अनंत चैप्टर हैं तो फिर आपको क्यों नहीं पता चला कि आपका एक एल्युमिनाई आपको छोड़कर चला गया? आपको याद दिलाना पड़ा कि कम से कम एक शोक सभा तो रख लीजिए. क्या एल्युमिनाई सिर्फ वही हैं, जिन्हें एल्युमिनाई एसोसिएशन खास समझता है या वो जो एसोसिएशन के पदाधिकारियों के आसपास मंडराते रहते हैं?
नहीं जनाब, एल्युमिनाई सागर मिश्रा जैसे लोग भी होते हैं जो गुमनामी में संघर्ष करते हुए बिना बताए चले जाते हैं. किसी भी संस्थान के एल्युमिनाई की संकल्पना अपने छात्रों के भले की भावना पर आधारित होती है, उनकी मदद करने की होती है…….पर आप एकमात्र ऐसे एल्युमिनाई एसोसिएशन हैं जो केवल ‘कैंपस वाले कपल’ और ‘कैंपस वाले राइटर’बनाते हैं.
सागर लगातार संघर्ष कर रहा था, हिंदुस्तान में नौकरी पाने के लिए उसे काफी मशक्कत करनी पड़ी थी. कुछ महीने बेरोजगार बैठने के बाद उसे नौकरी मिली और फिर शादी का फैसला. घर और अपने मां पापा की जिम्मेदारी अलग से. संघर्ष के दिनों में आईआईएमसी एल्युमिनाई एसोसिएशन से उसे कोई मदद नहीं मिली और शायद उसने ऐसी कोशिश भी नहीं की. आईआईएमसी एल्युमिनाई एसोसिएशन को लेकर उसके मन में जो धारणा बनी थी वह अनायास ही नहीं थी. दिल्ली और इससे बाहर के कई साथी पत्रकारों ने इस संगठन दूरी बना रखी है. कई ऐसे साथी हैं, जो इस बारे में बात करना भी गवारा नहीं समझते. कई ऐसे हैं जिन्हें इस बारे में कुछ पता भी नहीं कि यह संगठन आखिर है क्या? उन्हें ऐसा लगता है कि इस संगठन से कुछ भी उम्मीद करना बेमानी है. यह विशुद्ध नेटवर्किंग का मंच है और इसमें वहीं लोग शामिल हैं.
कुछ दिनों पहले ही एक समाचार एजेंसी में नौकरी के विज्ञापन को लेकर कुछ साथियों ने उस संस्थान की कारगुजारियों और नए पत्रकारों के शोषण की प्रवृति को सामने रखने की कोशिश की (ताकि नौकरी के लिए आवेदन करने के इच्छुक छात्रों को उस समाचार एजेंसी के बारे में सही-सही जानकारी दी जा सके) थी लेकिन एसोसिएशन के मॉडरेटर को यह खुलासा वाजिब नहीं लगा. और फिर इस बहस को तू-तू मैं-मैं में बदलते देर नहीं लगी. मॉडरेटर जरूरतमंद छात्र के हितों से ज्यादा उस एजेंसी की छवि के लिए फिक्रमंद नजर आए. मॉडरेटर इस बात को भूल गए कि नौकरी की जितनी जरूरत किसी डिप्लोमाधारी छात्र को होती है उससे कहीं अधिक जरूरत मीडिया संस्थानों को भी बेहतर प्रशिक्षित कर्मचारियों को होती है. किसी समाचार एजेंसी या फिर किसी भी मीडिया संस्थान के बारे में छात्रों को सही-सही जानकारी देना न केवल आपके लिए अनिवार्य है बल्कि आपका दायित्व भी. आप किसी के भविष्य के साथ नहीं खेल सकते. आखिर हमने भी तो आईआईएमसी के बारे में सभी जानकारियां जुटाई थीं. उन सभी संभावनाओं का आकलन किया था, ऐसा तो था नहीं कि आईआईएमसी के बारे में पता करने पर आईआईएमसी हमसे नाराज होगया और हमारे दाखिले पर रोक लगा दी.
इस पूरे प्रकरण में एल्युमिनाई एसोसिएशन की हरकत उसके मूल्यों और उसके खुद के बनाए गए सिद्धांतों के विपरीत थी. चूंकि मॉडरेटर को एसोसिएशन के सिद्धांतों और मूल्यों के बारे में ज्यादा अच्छी समझ है इसलिए इस बात को मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि उपरोक्त मामले में एल्युमिनाई एसोसिएशन का रुख छात्रों के हितों के विरोधी था.
आईआईएम और आईआईटी जैसे संस्थान अपने कैंपस में वैसी किसी कंपनी को घुसने भी नहीं देते जो अप्रासंगिक वेतन की पेशकश करते हैं. चूंकि पत्रकारिता में आपकी तरक्की गिरोहबाजी से तय होती है इसलिए यह मान लिया जाता है कि सभी मामलों में ऐसा ही होगा. लेकिन सागर को यह बात जब तक समझ में आती उसका धैर्य जवाब दे चुका था.
अगर यह वाकई में आईआईएमसी का एल्युमिनाई एसोसिएशन है और इससे सभी एल्युमिनाई अपने को जुड़ा पाते हैं तो उसके बुलावे पर महज एकाध दर्जन भर एल्युमिनाई? अगर यह एल्युमिनाइयों का संगठन है तो उसे यह बताने की जरूरत क्यों पड़ी कि हमारा एक साथी, दोस्त, भाई हमें छोड़ कर जा चुका है, आपको समय है तो उसे याद कर लीजिए. यह सब कुछ एसोसिएशन के दायरे को स्पष्टकर देता है. आईआईएमसी का एल्युमिनाई एसोसिएशन और उससे आईआईएमसी के अधिकांश एल्युमिनाई नहीं जुड़ें, उसकी अपील को अनसुना कर दें, ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ तो समस्या है इस संगठन के साथ. आप जुड़ नहीं पा रहे हैं या फिर जोडऩे की कोशिश ही नहीं कर रहे हैं, दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं. एल्युमिनाई एसोसिएशन के एक पदाधिकारी ने सोशल मीडिया पर अपने पोस्ट में यहां तक लिखा है, ‘आशंका इस बात की भी बताई जा रही है कि सागर किसी घोटाले के खुलासे पर काम कर रहा था और उस पर काफी दबाव था.’ जबकि इस तरह के मामलों में शायद ही कोई आत्महत्या करता है. वह भी अपने घर जाकर.
सागर अपने हालात से जूझ रहा था, वह शहीद नहीं हुआ है। उसे शहीद बनाने की कोशिश भी मत कीजिए. शहादत हमें हमारी जिम्मेदारियों से बचने का रास्ता देती है, उस पर लीपा पोती करने का मौका देती है. आप या हम अब भी अपने हाथ खड़े नहीं कर सकते. सागर हमसे, आपसे बड़ा एल्युमिनाई था, हां यह अलग बात है कि वह आपके एल्युमिनाई के ढांचे में फिट नहीं बैठता था. आपने दायरा काफी संकीर्ण कर रखा है. उसे बढ़ाइए.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के 2010-11 बैच के एक स्टूडेंट सागर मिश्रा ने 23 अप्रैल की रात अपने घर पर फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली लेकिन इस मौत को लेकर हर तरफ सन्नाटा पसरा रहा। कुछ दिन गुज़र जाने के बाद जब सोशल मीडिया में सागर को लेकर बहस शुरू हुई तो एल्युमिनाई एसोसिएशन ने आनन-फानन में एक शोक सभा बुला ली। इंस्टीट्यूट में सागर के सीनियर रहे अभिषेक पाराशर एसोसिएशन की भूमिका और उसकी प्रासंगिकता पर सवाल कर रहे हैं। अभिषेक बिज़नेस स्टैंडर्ड के युवा पत्रकार हैं।
