वरना तो मुक्तिबोध की कविता हैं हम – Mayank Saxena

Mayank Saxena
Mayank Saxena

आदिवासी
गरीब
जूठन चाटते लोग
आत्महत्या करते किसानों
दिमागी बुखार
हैजे
कुपोषण से मरते बच्चों
चूहा खाते मुसहरों
और
मैला ढोते लोगों के देश में
मेरा
तुम पर
तुम्हारे भगवान पर
और मुसलमानों पर टमाटर फेंकने
थूकने वाले
लोगों पर लिखते रहना
वाकई कितना अश्लील है न
ये ही लोग बदलेंगे देश
और इसलिए
अब मैं नहीं लिखूंगा
सिर्फ देखूंगा
कि तुम्हारा लोकतंत्र
मुझे लिखने से रोक सकता है
तो क्या लिखने पर मजबूर भी कर सकता है
लोकतंत्र का मतलब भी
पता है क्या तुम को
एक बार कहो न हां…
मैं मुस्कुराना चाहता हूं
वरना तो मुक्तिबोध की कविता हैं हम सब
अंधेरे में…

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