
आप उसे जनसमुद्र
जनसमर्थन
जनता की भावना
जनमत
न जाने क्या क्या कहते हो
मैं देखता हूं
इसमें
फासीवाद का उफान
इस भीड़ को देख कर
याद पड़ता है
बिना शक
लेकिन डरते हुए
एक जनसैलाब
इससे भी बड़ा था वो
जो आया था
ऐसी ही टोपियां पहने
ऐसे ही झंडे थामे
और एक मस्जिद नहीं
समूचे दक्षिण एशिया की
मोहब्बत और साथ की नींव ढहा कर
अपने-अपने घर लौट गया था
हंसते, नारे लगाते
एक दूसरे को चुटकुले सुनाते
और मैं इस भीड़ को देख
डर जाता हूं
जब बार-बार तुम सोमनाथ का नाम
जोड़ते हो देश के पुनर्निर्माण से
मैं डर जाता हूं
तुम्हारा विकास का दर्शन समझ कर
और मालूम है
मैं भी चाहता हूं कि पढ़ूं प्रेमकविता
और गढ़ूं
ग्रंथ गर्वित गद्य के
लेकिन मुझे ये भीड़
ये नारे
और ये शोर चैन से सोने तक नहीं देता
मैं जानता हूं
अब तुम मुझे
बाबर की औलाद कहोगे…
पर जानते हो क्या…
इस से मुझे
और
बाबर को
दोनों ही को कोई फर्क नहीं पड़ता
जिसे फर्क पड़ता है
वो फिलहाल रोटी की चिंता में है
तुम लोग देश बचाओ
देश लोगों से थोड़े ही बनता है
देश बनता है देश बचाने वालों से
मेरी लिखी
किसी थोथी, आदर्शवादी, नीरस
और लम्बी कविता से नहीं