जमीयत-उलेमा-ए-हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी ने ग़ज़ब फ़रमाया है। जनाब ने कहा है कि बीजेपी के पीएम नरेंद्र मोदी ने एक मौलाना के हाथ से टोपी ना पहनकर कोई ग़लती नहीं की। जैसे वह ख़ुद टीका नहीं लगा सकते, वैसे ही किसी को टोपी पहनाना ग़लत है। मौलाना के बोल दरअस्ल मोदीवादी राजनीति का ही दूसरा पहलू है। इस राजनीति की सफलता के लिए मौलाना जैसे विचारों का झंडा बुलंद होना बेहद ज़रूरी है।
ज़रा ग़ौर कीजिए। मोदी हों या मौलाना, दोनों का मानना है कि हिंदू और मुस्लिम दो ऐसी धाराएँ हैं जिनका संगम ना हो सकता है और ना होना चाहिए। इन्हें अलग-अलग ही चलना चाहिए। एक निश्चित दूरी ज़रूरी है। लेकिन इतिहासबोध मौलाना मदनी की समझ को ख़ारिज करता है। हक़ीकत यह है कि हम जिस गंगा-जमनी तहज़ीब पर गर्व करते हैं उसमें ‘मेल-मिलाप’ एक अहम चीज़ है। सदियों के संवाद के साथ विकसित हुई इस संस्कृति ने एक-दूसरे के लिए भरपूर अपनाइत बख्शी है। यही वजह है कि नफ़रत की ज़हरीली हवाओं को धता बताते हुए तमाम मुस्लिम रामलीलाओं में आज भी भूमिका अदा करते हैं और मेरे जैसे हिंदुओं का बचपन मुहर्रम पर ताज़िये के जुलूस के साथ घूमते बीता है। सूखी रोटी और चीनी से पगी ‘सिन्नी’ का स्वाद आज भी हमारी ज़बान पर है। कौन भूल सकता है कि अवध के नवाबों ने अयोध्या में हनुमान गढ़ी बनवाई थी और वाजिद अली शाह उर्फ ‘अख्तर पिया’ तो खुद कृष्ण का रूप धरकर बाकायदा रासलीला का आयोजन करते थे।
क्या मौलाना मदनी, सैय्यद इब्राहिम उर्फ ‘रसखान’ को इस्लाम से ख़ारिज करेंगे जिनका काव्य कृष्णभक्ति से ओतप्रोत है ? क्या उन्होंने ‘ध्रुपद’ का नाम सुना है? ‘वेद-गायन’ की इस शास्त्रीय शैली को तो ‘मुस्लिम’ डागर बंधुओं ने ही शिखर पर पहुँचाया? क्यों भला? मौलाना क्या यह बताएंगे कि ‘भारत रत्न’ से नवाज़े गये बिस्मिल्लाह खाँ किस तरह मुसलमान हुए जिन्होंने बचपन में डुमराव के रघुनाथ मंदिर पर सुर जगाये, और बाकी जिंदगी बनारस के पंचगंगा घाट पर बाला जी मंदिर सामने शहनाई का जादू जगाते रहे ? बिस्मिल्लाह खाँ के सामने विदेश में बसने के तमाम मौके थे लेकिन वे दालमंडी की तंग गली छोड़कर इसलिए नहीं गये क्योंकि वहां ‘गंगा मइया’ के दर्शन नहीं होते। टोपी में इस्लाम और तिलक में हिंदू धर्म के दर्शन करने वाले मौलाना मदनी, आने वाले दिनों में रसखान और बिस्मिल्लाह खाँ को काफ़िर ठहरा सकते हैं, खतरा यही है।
बिस्मिल्लाह खाँ से उनके अंतिम दिनों में हुई एक मुलाकात कभी नहीं भूलती। अपने घर की छत पर खाट पर बैठकर धूप सेंकते हुए खाँ साहब ने कहा था कि वे एक सुरीला समाज चाहते हैं। एक ऐसा समाज, हर तरफ मेल-मिलाप के सुर बरसें। सुर ही ईश्वर है, सुर ही अल्लाह!


