जामा मस्जिद के इमाम सईद अहमद बुखारी ने 4 अप्रैल की दोपहर कांग्रेस को समर्थन की अपील जारी की। उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस के ज़रिए कहा कि फिरक़ापरस्त ताक़तों को शिक़स्त देने के लिए सेक्युलर वोटों को एकमत होकर वोट देना होगा। वह कतई नहीं चाहते कि मुसलमानों का वोट बंटे और बीजेपी को फायदा पहुंचे। वह चाहते हैं कि देश का मुसलमान बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस के पक्ष में एकमुश्त वोट करे। लेकिन देश का मुसलमान अहमद बुखारी को कितनी गंभीरता से लेता है? इसे समझने के लिए सिर्फ दो मिसालें काफी हैं।
जामा मस्जिद का इलाका दिल्ली असेंबली की मटिया महल सीट में आता है। यहां से लगातार चार बार एमएलए रह चुके शोएब इक़बाल अहमद बुखारी को फूटी आंख नहीं सुहाते। बुखारी हर चुनाव में शोएब को शिक़स्त देने के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक देते हैं लेकिन अपने मक़सद में आजतक कामयाब नहीं हो सके।
दूसरी मिसाल उनके अपने दामाद की है। यूपी के बीते असेंबली इलेक्शन में उन्होंने अपने दामाद उमर अली खान को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मुस्लिम वोटर्स वाली सीट से खड़ा किया। सहारनपुर की बेहट असेंबली सीट पर मुस्लिम मतदाताओं की तादाद 75 फीसदी बताई जाती है जहां से उमर अली ख़ान समाजवादी पार्टी के टिकट पर क़िस्मत आज़मा रहे थे। चुनाव के वक्त पूरे प्रदेश में बीएसपी विरोधी लहर थी और मुसलमानों ने जमकर समाजवादी पार्टी के पक्ष में वोट किया लेकिन 75 फीसदी मुस्लिम वोटर्स वाली सीट से बुखारी के दामाद चुनाव हार गए। बुखारी, समाजवादी पार्टी और बीएसपी विरोधी लहर का असर यहां बिल्कुल नहीं हुआ। इस सीट पर उमर की ना सिर्फ ज़मानत ज़ब्त हुई बल्कि चौथे पायदान तक लुढ़क गए।
इन दोनों मिसालों से एक समझ साफ हो जाती है कि जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी की अपील का असर मुसलमानों में कितना होता है? ज़ाहिर है कुछ भी नहीं। लेकिन देश के मुसलमानों के नाम बुख़ारी की अपील चुनावों में घोले जा रहे ज़हर को हवा देने में कामयाब हो जाती है। यह बुख़ारी भी समझते हैं, उनसे समर्थन मांगने वाले दल और विपक्षी भी। बुखारी की अपील के बाद गैरमुस्लिम वोटर्स में अचानक एक संदेश तैरने लगता है। कहा जाता है कि देशभर के मुसलमान इकट्ठा हो रहे हैं, लिहाज़ा हिंदुओं को एकजुट होने की ज़रूरत है। यहां यह समझना बेहद ज़रूरी है कि अगर बुखारी की अपील पर मुसलमान इकट्ठा नहीं होते हैं तो इसकी कोई गारंटी नहीं कि दक्षिणपंथियों की अपील पर कुछ हिंदू वोट प्रभावित नहीं होंगे। ऐसा होता है, और यह किया जा रहा है। जैसे बुखारी की अपील के बाद व्हाट्सएप पर तैरता यह मैसेज ‘अगर अब्दुल्लाह बुखारी जामा मस्जिद से ये ऐलान करता है कि सभी मुसलमान कांग्रेस को वोट दे तो हमारा भी ये फर्ज़ बनता है कि हिंदू होने के नाते बीजेपी को वोट करें और प्रूव करें कि हिंदूओं के वोट से भी सरकार बनती है। अगर आप सचमुच हिंदू हैं तो आपको माता रानी की कसम, इस मेसेज को अपने सभी फ्रैंड को सेंड करें।’ इस संदेश में कई झोल हैं। जैसे अपील अब्दुल्लाह बुखारी ने नहीं अहमद बुखारी ने की है। अब्दुल्लाह बुखारी अब इस दुनिया में नहीं रहे। यह अपील मस्जिद से नहीं बल्कि प्रेस कांफ्रेंस के ज़रिए जारी की गई थी लेकिन इसे जानबूझकर तोड़मरोड़ दिया गया है।
अहमद बुखारी की अपील का मुसलमानों पर कोई असर क्यों नहीं पड़ता, इसकी कई वजहें हैं लेकिन वोटों का कुछ ध्रुवीकरण करने में वह ज़रूर कामयाब हो जाते हैं। अपने ज़हरीले बयानों की वजह से बुखारी की इमेज एक सांप्रदायिक मौलाना की है जिसका फायदा सीधे बीजेपी को पहुंचता है। जामा मस्जिद के इमामों के इतिहास में बुखारी अभी तक के सबसे विवादित और अविश्वसनीय इमाम हैं। उनपर क्रिमिनल चार्जेज़ और कोर्ट की अवमानना का आरोप है। बुखारी के खिलाफ गैरज़मानती वारंट जारी हो चुका है लेकिन अपनी सांप्रदायिक छवि का फायदा उठाकर वह गिरफ्तारी से अभी तक बचे हुए हैं। बुखारी दलबदलू हैं और इनपर रुपए लेकर पार्टियों को सपोर्ट करने का आरोप है। साल 2000 में जामा मस्जिद की इमामत संभालने के बाद बुखारी बीएसपी, सपा, बीजेपी और अब कांग्रेस को समर्थन दे चुके हैं।
शाहनवाज़ मलिक नवभारत टाइम्स में पत्रकार हैं।
