भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी देश को एक सपना दिखा रहे हैं वैसा सपना जो कभी भी पूरा नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए क्योंकि जो वादे नरेंद्र मोदी कर रहे हैं वह गुजरात के मुख्यमंत्री की हैसियत से कर रहे हैं न कि देश के प्रधानमंत्री की हैसियत से. 1977 के बाद से देश की राजनीति में आमूल चूल बदलाव आए हैं और सबसे बड़ा बदलाव यह है कि अब देश में ‘केंद्र की केंद्रीकृत सत्ता’ जैसा कुछ भी अस्तित्व में नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, पश्मिच बंगाल और ओडिशा जैसे राजनीति के लिहाज से अति महत्त्वपूर्ण राज्यों में गैर कांग्रेस और गैर भाजपा दलों के उदय और संबंधित राज्यों में इन दलों की सफलतापूर्वक स्थापना की अगर कोई सबसे बड़ी और प्रमुख उपलब्धि कुछ रही है तो वह यह कि इन्होंने केंद्र की एकाधिकारी केंद्रीय प्रवृत्ति को पूरी तरह से विकेंद्रित करके रख दिया है।
केंद्र की केंद्रीकृत सत्ता को सबसे बड़ा हालिया झटका एनसीटीसी (नैशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर) के क्रियान्वयन की कोशिश का असफल होना है। एनसीटीसी का प्रस्ताव तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम का था और वह इसे लागू कराने की भरसक कोशिश कर रहे थे। हालांकि इस विधेयक को लेकर केंद्र बनाम राज्य के विवाद की शुरुआत हो गई। राज्यों की आपत्ति इस प्रस्तावित कानून की धारा 43 (ए) को लेकर थी जो कि एजेंसी को (अगर उसे लगता है कि कोई व्यक्ति आतंकवाद संबंधी गतिविधियों में लिप्त है) किसी भी व्यक्ति को शक या सबूतों के आधार पर गिरफ्तार करने या हिरासत में लेने का अधिकार देता था। इस प्रावधान का सर्वाधिक कड़ा विरोध गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों ने किया और उन्होंने केंद्र पर राज्यों के अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ का आरोप लगाया। चूंकि कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है लेकिन एनसीटीसी इस प्रावधान से उपर था और राज्य की पुलिस को एनसीटीसी के कार्यक्षेत्र में दखल देने का हक तक नहीं था। निश्चित तौर पर यह सीधे सीधे राज्यों के अधिकार क्षेत्र में केंद्र के घुसपैठ का मामला था और इसके राजनीति इस्तेमाल की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता था।
अब सवाल यह उठता है कि नरेंद्र जिस भारत का सपना दिखा रहे हैं, उसकी सच्चाई क्या है? नरेंद्र मोदी जनता से यह वादा कर रहे हैं कि केंद्र में उनकी सरकार बनी तो वह सभी अधूरे कार्यों को पूरा कर देंगे। भारत का जीडीपी दहाई अंकों में होगा, सबको रोजगार मिलेगा, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों की समस्याओं का समाधान किया जाएगा, सिंचाई और कृषि में नई क्रांति आएगी, भ्रष्टाचार का खात्मा हो जाएगा (लेकिन विरोधाभास यह है कि मोदी के राज्य में निजी क्षेत्रों की भूमिका का विस्तार होगा और अभी तक के स्थापित अनुभवों के आधार पर देखा जाए तो भ्रष्टाचार का सीधा संबंध निजी क्षेत्र और निजी क्षेत्र के उद्यमियों से है)। कुल मिलाकर वह रामराज्य ले आएंगे।
दरअसल यह तभी संभव है जब मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ साथ देश के सभी राज्यों या कम से कम बीमारू राज्यों और पूर्वोत्तर भारत में एक साथ भाजपा की सरकार बने, जो कि असंभव है। तो फिर मोदी लोगों से झूठ बोल रहे हैं और सत्ता हासिल करने के लिए कांग्रेस विरोधी लहर का शातिराना तरीके से इस्तेमाल कर इस मुल्क को गुमराह कर रहे हैं?
गुजरात के मुख्यमंत्री के विकास का नजरिया उत्तर प्रदेश और बिहार या फिर तमिलनाडु या केरल के मुख्यमंत्री से निश्चित तौर पर अलग होगा और होना भी चाहिए, क्योंकि गुजरात न तो बिहार है और न हीं केरल। तीन तीन बार मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभालने के बाद भी मोदी को संविधान और उसमें उल्लिखित राज्य सूची, केंद्रीय सूची का भान नहीं है या फिर वह इसे जानबूझकर नजरअंदाज कर रहे हैं? जबकि हकीकत यह है कि एनसीटीसी के क्रियान्वयन को लेकर राज्यों के अधिकार क्षेत्र में केंद्र की घुसपैठ का भाजपा की सरकारों और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने जमकर विरोध किया था। यानी मोदी केंद्र की सरकार में अधिकतम अगर कुछ कर सकते हैं तो वह केंद्रीय मंत्रालयों की नौकरशाही प्रणाली में सुधार है। रही बात विकास की तो वह सभी राज्यों के साथ ही होगा और इसमें केंद्र की भूमिका न्यूनतम ही होती है। इसलिए मोदी साफ तौर पर भारत के रामराज्य बनने की झूठी कहानी पेश कर रहे हैं।
अब जरा के्रडिट सुइस की इस रिपोर्ट पर नजर डालिए जिस बुधवार यानी 19 मार्च 2014 को जारी किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, ‘केवल एक चौथाई परियोजनाएं ही केंद्र सरकार के पास अटकी पड़ी हुई हैं जिसमें दो तिहाई परियोजनाएं बिजली और स्टील क्षेत्र से संबंधित हैं। बिजली की खपत दो दशक के न्यूनतम स्तर पर है और राज्य सरकारों की मदद से इसकी मांग में इजाफा हो सकता है अन्यथा इस समस्या का समाधान खोजने में कई साल लग जाएंगे।’ दरअसल समस्या की जड़ राज्य सरकारों और जिला स्तर पर है। नरेंद्र मोदी अगर प्रधानमंत्री बन भी जाते हैं तो वह राज्य स्तर की नौकरशाही सुस्त और लापरवाही प्रवृत्ति को नहीं बदल पाएंगे और न हीं उन आर्थिक चुनौतियों का समाधान कर पाएंगे जिसका सामना हम आज कर रहे हैं। तो फिर नरेंद्र मोदी के सपनों का भारत कैसे बनेगा ?
दूसरी बात यह कि मोदी देश की राजनीति में केंद्रीकृत सत्ता के पक्षधर की तरह बात कर रहे हैं। वह बताते हैं कि केंद्र में उनके आते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। हालांकि मोदी एक मामूली बात भूल रहे हैं कि अगर आज हमारा लोकतंत्र अपेक्षाकृत इतनी मजबूती से खड़ा हुआ है तो उसमें दलीय विविधता और विभिन्न क्षेत्रीय दलों की एक बड़ी भूमिका है जिसने देश की राजनीति के विके्रंद्रीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। यह लोकतंत्र के आम जनता के दरवाजे तक पहुंचने जैसा है। उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में की गई पहल है जहां उन्हें लगता है कि यह हमारा नेता और हमारा लोकतंत्र है। विडंबना यह है कि भाजपा ने एनसीटीसी के मामले में केंद्र सरकार का यह कहकर विरोध किया कि इससे राज्यों के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण होगा और अगर ऐसा कुछ करना है तो उसमें राज्यों की सहमति आवश्यक है। लेकिन भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार मोदी केंद्र की केंद्रीकृत सत्ता के प्रबल समर्थक की तरह बात करते हैं। उनके भाषणों में हमेशा इस दंभ का जिक्र होता है कि मनमोहन सिंह असफल रहे और अगर वह आए तो सभी असफलताओं का बदला लिया जाएगा। सभी गलतियों को सुधारा जाएगा।
मोदी जिन दावों को बढ़ा चढ़ाकर पेश कर रहे हैं, खासकर गुजरात के विकास मॉडल के बारे में, उसकी सत्यता की जांच पूरी तरह से नहीं हो पाई है। इसलिए उनके दावों पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। मोदी इस बात को भूल रहे हैं कि मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के क्षेत्राधिकार में एक मूलभूत फर्क होता है। मुख्यमंत्री की जवाबदेही और प्रधानमंत्री की जवाबदेही में अंतर होता है। वैश्वीकरण के तेजी से बदलते परिदृश्य में गवर्नेंस के तरीकों में बदलाव आया है जिसे मोदी जानबूझकर नजरअंदाज कर रहे हैं। मोदी खुद तीन बार से मुख्यमंत्री हैं और उन्हें इस बात का भली भांति अंदाजा होगा कि एक राज्य के मुख्यमंत्री और (तेलंगाना को मिलाकर 29 राज्यों के संघ) के मुखिया के तौर पर गठबंधन राजनीति के दौर में प्रधानमंत्री की कार्यशैली में कितना अंतर होता है और यह तब और भी अहम हो जाती है पूरी तरह से केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आने वाले विदेश संबंधो में तेजी से क्षेत्रीय दलों (मसलन बांग्लादेश के साथ भारत के विदेश संबंधों में तृणमूल कांग्रेस की भूमिका और श्रीलंका के साथ विदेश संबंध में अन्ना द्रमुक और द्रमुक पार्टी की भूमिका) का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है।
अभिषेक पाराशर बिज़नेस स्टैंडर्ड के युवा पत्रकार है। बीजेपी और हिन्दुत्ववादी ब्रिगेड की गतिविधियों पर पैनी नज़र रखते हैं।
