मां बनने की इच्‍छा का सात फेरों से कोई लेना-देना नहीं – Manisha Pandey

Manisha Pandey

मां बनने की इच्‍छा और जरूरत का सात फेरों से कोई लेना-देना नहीं। ईश्‍वर, धर्म, कोर्ट, कानून, कचहरी, शादी, परिवार, समाज, व्‍यवस्‍था आदि-आदि से भी कोई लेना-देना नहीं। मां बनने की इच्‍छा और जरूरत का लेना-देना है तो सिर्फ हमारे शरीर के हॉर्मोन्‍स से। सात फेरे समाज लगवाए, न लगवाए, हॉर्मोन तो वक्‍त पर अपना काम करते ही हैं।

मैं और मेरी बहुत सारी सहेलियां आज अकेला, आत्‍मनिर्भर जीवन जी रही हैं। शादी नहीं की क्‍योंकि प्रेमी के रूप में हमारे हिस्‍से में ऐसे लड़के आए, जिन्‍हें लगता था कि मर्द होने के नाते उनके पास तमाम विशेषाधिकार सुरक्षित हैं। वो बोलेंगे और हम सुनेंगे। हमारे आजाद व्‍यक्तित्‍व की चमक उन्‍हें डराती थी। उन्‍हें जींस पहनने वाली, अंग्रेजी बोलने वाली, पैसे कमाने वाली, इंटेलेक्‍चुअल लड़की तो चाहिए थी, लेकिन अपने फैसले लेने वाली और उनकी शातिरता पर पलटकर जवाब देने वाली नहीं। जिस तरह एक समझदार, संवेदनशील और बहुत डूबकर चाहने वाले साथी के सपनों को मारकर हमने जीना सीखा, उसी तरह मां बनने की इच्‍छा को भी मार डाला। जो मुमकिन नहीं, उसके बारे में क्‍या सोचना। किस-किस से लड़ेंगे, किस-किस को जवाब देंगे।

इतनी हिम्‍मत तो खुद मुझे भी कभी नहीं हुई। 23-24 साल की उमर में अचानक मुझे बहुत डेसपेरेटली लगने लगा था कि मैं मां बनना चाहती हूं। मैंने और मेरी एक दोस्‍त ने इस बारे में बहुत सीरियसली बात की। बहुत सोचा। क्‍या कर सकते हैं। जब मैंने आरियाना फेलाची की किताब लेटर टू ए नेवर बॉर्न चाइल्‍ड पढ़ी तो उसकी नायिका की जगह खुद को रखकर देखा। I am an independent working women, not married. What if I got pregnant. दिल का एक कोना कहता कि मनीषा। द मदर। द मोस्‍ट हैपी वुमेन ऑन दिस अर्थ और तभी दूसरा कोना, जिंदगी की एक लाख सच्‍चाइयों का हथौड़ा मेरे सिर पर पटक देता। क्‍या होगा, जब सबकी तिरछी, टेढ़ी, उठी हुई निगाहें मुझसे सवाल करेंगी। मैं किस-किसको समझाऊंगी कि ये देह मेरी है और इस पर हक है मेरा। मैं अपने फैसले की जिम्‍मेदारी लेती हूं। किस-किससे कहूंगी कि एंगेल्‍स की ओरिजन ऑफ फैमिली, प्रायवेट प्रॉपर्टी एंड स्‍टेट पढ़ो। क्‍या होगा, जब ऑफिस के लोगों को पता चलेगा। हिंदी अखबार के दुबेजी, मिश्राजी लोग टेढ़ी निगाहों से मेरा एक्‍सरे निकालेंगे। मुझे देखकर कनखियों से इशारे करेंगे, बेशर्मी से मुस्‍कुराएंगे। दुनिया के दिए कैरेक्‍टर सर्टिफिकेट से मेरा घर भर जाएगा। सबकी निगाहों में मैं संसार की सबसे चरित्रहीन औरत होऊंगी। मेरा बॉस एक दिन मुझे अपने केबिन में बुलाएगा और बोलेगा, “यू प्‍लीज रिजाइन। वी कैननॉट एक्‍सेप्‍ट दिस। आपकी वजह से ऑफिस का माहौल खराब हो रहा है।” मेरा मकान मालिक बोलेगा, “मैडम आप फ्लैट खाली कर दीजिए। आपकी वजह से समाज में हमारी नाक कटेगी।” मेरे पास तो लाखों रुपए भी नहीं कि दो साल के लिए जर्मनी चली जाऊं। नहीं तो कहीं अंडमान-निकोबार पर जाकर रहूं। दो साल बाद कह दूंगी, बच्‍चा मैंने एडॉप्‍ट किया है।

कोई ऐसा कल्‍पना नहीं थी, जो दिल ने नहीं की। और कोई ऐसी कल्‍पना नहीं थी, जो सच हो सकी। और ये कल्‍पना सिर्फ मेरी नहीं, मेरी अनेकों सहेलियों की है। किसी नवजात बच्‍चे को देखकर आज भी देह में हॉर्मोन डूबने-उतराने लगते हैं। वो खुद को समझाती हैं। चुप बैठी रहती हैं। तकिये पर सिर डाल कुछ देर यूं ही पड़ी रहती हैं। किताबें पढ़ती हैं, कहीं घूमने चली जाती हैं। मेकअप करती हैं, केक खा लेती हैं। भूलने की कोशिश करती हैं कि वो मां बनना चाहती हैं।

उन्‍हें यकीन है कि संसार की सारी अमानवीयताएं खत्‍म होंगी एक दिन। ये सिर्फ एक मेरी इच्‍छा का सवाल नहीं है। ये एक लंबी लड़ाई है, जिसकी कीमत हमें और हमारे बाद आने वाली कई पीढि़यों को अभी चुकानी होगी।
यूं तो हम मां नहीं हैं, लेकिन फिर भी हम माएं हैं।

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