एक युग का अन्त – कँवल भारती (Kanwal Bharti)

rajendra yadav

सर्वेश कुमार मौर्य को अनेक धन्यवाद कि उन्होंने sms भेज कर राजेन्द्र यादव के निधन की खबर अपने मित्रों तक पहुंचायी. उनका sms पाकर अजय नावरिया से इस दुखद खबर की पुष्टि की, तो पता चला कि रात किसी समय सम्भवता हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हुई. मेरे लिये दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके उनकी शव-यात्रा में शामिल होना किसी भी साधन से संभव नहीं लग रहा है, इसलिए मैं सुदूर से ही उनके पार्थिव शरीर को नमन करता हूँ.

मैं फक्र कर सकता हूँ कि मैंने राजेन्द्र यादव को देखा था, उनसे बातें की थीं. पर, बहुत ज्यादा अंतरंगता उनसे मेरी कभी नहीं रही. सभा-समारोहों में तो अनेक बार मिलना हुआ, पर व्यक्तिगत मुलाकातें कुल जमा चार हैं और वो भी बहुत संक्षिप्त. मुलाकातों में वह खुले दिल के इन्सान थे. बेतकल्लुफ अन्दाज़ और गर्मजोशी उनका स्वभाव था. गम्भीर माहौल को भी अपने चुटीले मजाक से हलका कर देते थे, कहना चाहिए कि मुलाकातों में वह ठहाकों के सम्राट थे.

लेकिन सबसे बड़े सम्राट वह हिन्दी साहित्य में नये विमर्श के थे. साहित्य में प्रगतिशील चिन्तन तो पहले भी था, पर वह था ब्राह्मणवाद का ही लग्गू-भग्गू. राजेन्द्र यादव ने उस चिन्तन को ब्राह्मणवाद से मुक्त करने में जो भूमिका निभायी, वह अद्वितीय है. उन्होंने ‘हंस’ में अपने सम्पादकीय लेखों के माध्यम से जिस सामाजिक परिवर्तन की धारा चलायी, उसका मुकाबला कोई संपादक और कोई लेखक नहीं कर सकता. हनुमान को भारत का पहला आतंकवादी राजेन्द्र यादव ही कह सकते थे. निठल्ले साधु-संतों को ऐके 47 से उड़ाने की बात कहने का साहस भी वह ही कर सकते थे. अपने स्त्री-विमर्श में जिन खौलते हुए सवालों को उन्होंने उठाया था, उसके लिए उन्हें भारतीय संस्कृति के ‘रक्षकों’ से क्या-क्या नहीं सुनने को मिला. यहाँ तक कि तथाकथित नारीवादियों तक ने उन्हें खरी-खोटी सुनाई. और राजेन्द्र यादव ने अपनी हर आलोचना और हर कुतर्क का जवाब और भी विचारोत्तेजक और नये तर्कों के साथ दिया.

यह राजेन्द्र यादव ही थे, जिन्होनें दलित साहित्य को सबसे पहले मान्यता दी थी. ओमप्रकाश वाल्मीकि की दलित रचनाधर्मिता से हिन्दीलोक को परिचित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है. उनकी इसी प्रतिबद्धता का परिणाम था–‘हंस’ का दलित साहित्य विशेषांक. पर इस सन्दर्भ में हमेशा उन्होंने नयी सोच को महत्व दिया.

क्रन्तिकारी ढंग से सोचने के कारण ही उन्होंने भारतीय मुस्लिम समाज के भीतर चल रहे विमर्श को बहस के केंद्र में लाने के लिए ‘हंस’ का ‘भारतीय मुसलमान’ विशेषांक निकाला था. पर इस अंक की भी बहुत आलोचनाएँ हुई थी, और ये आलोचनाएँ उनकी ओर से आयीं थीं, जो सुधार नहीं चाहते. 2005 में मेरे अनुरोध पर एक कार्यक्रम में वह रामपुर आये थे. दोपहर का भोजन एक मुस्लिम परिवार में था. वह परिवार ने ‘हंस’ के इस विशेषांक को पढ़ कर ही राजेन्द्र यादव से मिलने का इच्छुक था. वह परिवार उन्हें आज भी याद करता है. उनका कृतत्व बहुत विशाल है. उन्होंने दोस्ती भी निभाई और दुश्मनी भी, पर अपनी विचारधारा से कभी समझौता नहीं किया. निशित ही आज उनके साथ साहित्य का वह युग समाप्त हो गया, जिसके वह निर्माता थे. उन्हें विनम्र श्रद्धांजली .
29 अक्टूबर 2013

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