निस्संदेह, जाति का सवाल आसान नहीं है, वह काफी व्यापक और जटिल है.
भारत का सामाजिक ढांचा ही सबसे अनूठा है, ऐसा ढांचा दुनिया में और कहीं भी नहीं मिलेगा. पूरी दुनिया में पूंजीवाद की व्यवस्था जिस शोषण को अंजाम दे रही है, वह भारत के मुकाबले में काफी कम है. इसका कारण है, यहाँ जाति-व्यवस्था भी है, जो अन्यत्र नहीं है. यह ब्राह्मणवादी व्यवस्था है, जिसके आगे काले-गोरे का नस्लवाद भी फीका पड़ जाता है. यहाँ चूँकि ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद की दोनों व्यवस्थाएं समानान्तर चल रही हैं, इसलिए यहाँ दलित वर्ग का दोहरा शोषण है. ब्राह्मणवाद उनका सामाजिक दमन करता है और पूंजीवाद उनका आर्थिक शोषण करता है. दोनों व्यवस्थाएं सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को जन्म देती हैं. लेकिन ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलितों ने एक लम्बी और निर्णायक लड़ाई लड़ी है, जो इतिहास में दर्ज है.
समाजवादी विचारधारा के अनेक सवर्ण भी इसके विरोध में हैं. 1990 के बाद तो दलित वर्ग के राजनीतिक संघर्ष ने भी कांशीराम के नेतृत्व में ब्राह्मणवाद को लगभग परस्त ही कर दिया था, जो बाद में ब्राह्मणी शाजिश से पुनर्जीवित हो गया था. यह साजिश पूंजीवाद की थी, जिसके शिकार कांशीराम, मायावती और मुलायमसिंह तीनों हुए थे. वे आज भी पूंजीवाद के शिकंजे में हैं और ब्राह्मणवाद के साथ कदमताल कर रहे हैं. आज ये तीनों ही अपने-अपने हिसाब से जातीय मुद्दों पर राजनीति करते हैं, लेकिन जब कुछ करने का समय आता है, तो सबसे ज्यादा भीरूपन भी ये ही दिखाते हैं.
पिछड़ों के आरक्षण के सवाल पर अ खिलेश सरकार का भीरूपन इसका ताज़ा उदहारण है. दलित वर्ग इन्हें जाति के आधार पर ही वोट देता है. उन्हें अपनी जाति का आदर्श मानता है. ये राजनेता भी जातीय अस्मिता के मुद्दे पर ही उन्हें अपना वोट बैंक मानकर चलते हैं. यह सब ब्राह्मणवाद के विरोध की राजनीति है, जो चल रही है.
ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलित वर्ग काफी मुखर है, इसमें शक नहीं है. पर अपने आर्थिक मुद्दों पर वह पूंजीवाद के खिलाफ बिलकुल भी मुखर नहीं है, क्यों? क्या बाबासाहेब का वह कथन गलत है, जिसमे उन्होंने कहा था कि दलित वर्ग के दो शत्रु हैं–ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद? आज सबसे ज्यादा जरूरत रोजी-रोटी, शिक्षा, आवास और सुरक्षा के सवालों पर लड़ने की क्यों नहीं है?
