लड़कियाँ
हमारे बचपन में
किसी पोशीदा राज की तरह
होती थीं लड़कियाँ
उनके संसार में वर्जित था
हम लड़कों का प्रवेश
भले ही वो हमारी बहनें ही क्यूँ न हों
उनका होना हमारे लिए
किसी अचरज का होना था
जैसे किसी और ही ग्रह से थीं वे लड़कियाँ
उनके खेल अलग
किस्से अलग
और विस्मित कर देने वाली मुस्कान भी
अभी-अभी रो रही होतीं
और अचानक से खिलखिलाकर
फट पड़तीं यह लड़कियाँ
जिस घर में हमारा आना-जाना था
हमारे होने की निशानियाँ थीं
वहां बसती थीं लड़कियाँ
कोई आस-पास हो तो चुप रहती थीं
रह लेती थीं बिना साँस
पर अकेले में क्या खूब खिलखिलाती थीं
घर उनके लिए कब्रगाह की तरह थे
जिसमें लगे थीं
अनगिनत भेदिये कैमरे
पर घर से बाहर
बनैल हो जाती थीं
यही लड़कियाँ
सरे राह हंसती, खिलखिलातीं
जोर-जोर से बोलतीं
शरारतें और मस्तियाँ करतीं
पुरवाई की तरह बहती थीं
हिरनी सी फुदकती थीं
जी लेती थीं दड़बे में जाने के पहले भरपूर
हम कभी उनकी दुनिया में शामिल होने की कोशिश करते
तो दुरदुराकर भगा दिए जाते
जैसे भगाए जाते हैं अनचाहे जीव
धीरे-धीरे, हमारे देखते-देखते
तिलिस्म में तब्दील हो गयीं वे
जबकि हम अय्यार होने में असमर्थ थे
हम तब नहीं समझ रहे थे
उस संस्कृति की मशीन को
जो उन्हें लड़की से औरत बना रही थी
उन्हें घर की दीवार में
सीलन सी चिपका रही थी
उनकी खिलखिलाहट को रुदन में बदल रही थी
आज भी वे शामिल हैं
मेरी स्मृतियों में
अपराधबोध की तरह।
मृत्युंजय प्रभाकर
