डा. भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने अपने एक व्याख्यान में कहा है कि एक समय उन्हें गीता पर बहुत श्रद्धा थी। तब वह उसके दूसरे अध्याय के अट्ठारह श्लोकों का पाठ करके ही सोया करते थे। पर, एक बार उन्होंने कलकत्ता के धर्म-राजिक हाल में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक को यह कहते सुना कि ‘यदि किसी भी धर्म के, किसी अनुयायी की, कभी यह इच्छा हुई हो कि वह अपने जीवन के लिये एक मार्ग-दर्शक के रूप में एक ही पुस्तक और केवल एक ही पुस्तक साथ रखे, तो संसार भर के पुस्तकालय में उसे ‘धम्मपद’ से बढ़कर दूसरी पुस्तक नहीं मिलेगी।’ कौसल्यायन जी ने लिखा है कि उन्होंने उस समय पहली दफा ‘धम्मपद’ का नाम सुना था। लेकिन उसका असर उन पर इतना गहरा हुआ कि फिर उनके मानस पर ‘गीता’ के स्थान पर ‘धम्मपद’ आसीन हो गयी। दरअसल ‘हरिनाम दास’ को ‘आनन्द कौसल्यायन’ बनाने का श्रेय भी सत्यदेव परिव्राजक को ही जाता है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि ‘परिव्राजक जी आॅंखों से मजबूर थे, उन्हें सहारे की जरूरत थी और हरिनाम दास अन्धे की लाठी बनकर उनके साथ काफी समय रहे थे।’ आदमी का रूपान्तरण इसी तरह हुआ करता है। डा. आंबेडकर भी अपने ब्राह्मण अध्यापक द्वारा दी गयी पुस्तक ‘भगवान बुद्ध’ की जीवनी पढ़ कर ही बौद्धधर्म की ओर आकर्षित हुए थे। भगवान बुद्ध की उस जीवनी को पढ़ कर ही बाबासाहेब डा. आंबेडकर बौद्धधर्म के पुनरुद्धारक बने और अपने करोड़ों अनुयायियों के लिये प्रेरणा-सªोत बने।
डा. भदन्त आनन्द कौसल्यायन के सन्दर्भ में एक सवाल यह उभरता है कि धम्मपद में ऐसा क्या है, जिसने उनकी गीता पर और विशेष कर उन 18 श्लोकों पर, जिनका पाठ करके वह सोया करते थे, विजय प्राप्त कर ली? उन्होंने इसका जवाब अपने व्याख्यान में दिया है- हिंसा और वर्णव्यवस्था। गीता हिंसा और वणर््व्यवस्था का समर्थन करती है, जबकि धम्मपद उसका खण्डन करता है। गीता का दूसरा अध्याय युद्ध पर धर्म-नीति का उपदेश करता है। अर्जुन युद्ध करने से, अपने ही भाइयों से लड़ने से मना करता है और कृष्ण अर्जुन को समझातेे हैं कि तुम्हें धर्म के लिये लड़ना ही होगा- ‘यदि तू इस धर्मयुक्त संग्राम को नहीं करेगा, तो स्वधर्म को और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।’ (2/33) इसके विरुद्ध कौसल्यायन जी धम्मपद के कोधवग्ग के हवाले से बताते हैं कि ‘यश अपयश सामाजिक धारणाओ के फलितार्थ हैं। उन्हें धर्म की तुलना के दो पलड़े नहीं बनाया जा सकता।’ लेकिन सवाल युद्ध के औचित्य-अनौचित्य का है, जिसपर वे अपने व्याख्यान में एकदम मौन हैं। इसे उन्होंने कुशल-अकुशल कर्म के अन्तर्गत रखने की कोशिश की है और बताया है कि ‘भगवान बुद्ध ने किसी भी परिस्थिति में किसी भी प्रकार के अकुशल कर्म करने की कभी भी अनुमति नहीं दी। लेकिन यदि न्याय के हित में अपनों से लड़ना ही पड़ जाय, तब? इस ‘तब’ पर उन्होंने विचार ही नहीं किया, जबकि बुद्ध की दृष्टि से इसपर विचार करना बहुत जरूरी था। बुद्ध ने सिंह सेनापति को युद्ध करने की आज्ञा दी थी। न्याय के हित में अन्याय का प्रतिकार करने के लिये युद्ध जरूरी भी है, वरन् देश अपनी स्वतन्त्रता खो सकता है। गीता में कृष्ण-अर्जुन सम्वाद का मकसद अर्जुन को युद्ध के लिये तैयार करना ही है। अर्जुन तैयार हुआ कृष्ण की इस बात से कि धर्म हित में युद्ध करने वाला मर कर स्वर्ग को जाता है। लेकिन कौसल्यायन जी कहते हैं, ‘महाभारत के ‘स्वर्गारोहण पर्व’ की साक्षी है कि वह अर्जुन भी नरक गया।’ उन्होंने सवाल उठाया है कि जो गीता अर्जुन को भी नरक में पड़ने से नहीं बचा सकी, वह भगवद्गीता किसी का भी क्या कल्याण कर सकती है? वैदिक परम्परा में स्वर्ग-नरक और परलोक की मजबूत धारणा है। क्या बुद्ध भी इसी धारणा के हैं? कौसल्यायन जी ने माना है कि बौद्धधर्म को आत्मा का अस्तित्व किसी भी रूप में स्वीकार नहीं। जब आत्मा नहीं, तो स्वर्ग-नरक और परलोक भी कैसे हो सकता है? पर, इस सम्बन्ध में स्वयं ‘धम्मपद’ क्या कहता है, यह जानना जरूरी है। उसमें एक पूरा ‘वग्ग’ ही नरक के अस्तित्व पर है, जिसका नाम है- ‘निरयवग्गो’। इसमें 14 गाथाएॅं और हरेक गाथा में कहा गया है कि अकुशल कर्मी और पापी नरक में जाता है। इसी तरह धम्मपद स्वर्ग और परलोक के अस्तित्व को भी स्वीकार करता है। पहले वग्ग (यमकवग्गो) में ही कहा गया है, ‘पाप करने वाला लोक में भी शोक करता है और परलोक में भी।’ (1/15) ‘लोकवग्गो’ में स्वर्ग की धारणा भी मिलती है। उसमें कहा गया है, ‘जाल से मुक्त पक्षी की तरह विरले ही स्वर्ग को जाते हैं।’ (13/8) इसी वग्ग में यह भी कहा गया है कि ‘कंजूस देवलोक नहीं जाते और पण्डित दान देकर परलोक में सुखी होते हैं।’ (13/11) सवाल यह है कि जब आत्मा ही नही है, तो कैसा स्वर्ग-नरक और कैसा परलोक?
दूसरा सवाल वर्णव्यवस्था का है। गीता में कृष्ण ने स्वयं को वर्णव्यवस्था का कर्ता कह कर उसे ईश्वरकृत बना दिया है, (देखिए गीता 4/13)। सामाजिक समानता में विश्वास करने वाला कोई भी व्यक्ति इसे कैसे स्वीकार कर सकता है? यह एकदम अवैज्ञानिक और अमानवीय व्यवस्था है। इसी आधार पर डा. आंबेडकर ने गीता के रचयिता को पागल, सनकी और मूर्ख कहा था। भदन्त आनन्द कौसल्यायन को ‘धम्मपद’ में वर्णव्यवस्था का खण्डन दिखायी दिया और वे उसके मुरीद हो गये। उन्होंने ‘ब्राह्मणवग्गो’ का हवाला देकर कहा है कि ‘भगवान बुद्ध ने चातुर्वर्ण को जन्माश्रित मानने से साफ इनकार कर दिया है।’ (26/11) उन्होंने इस वग्ग की यह गाथा भी उद्धरित की है- ‘जो शरीर, वाणी तथा मन से दुष्कर्म नहीं करता और संयत रहता है, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूॅं।’ (26/9) लेकिन ‘ब्राह्मण’ शब्द भी तो चातुर्वर्ण का ही शब्द है। वर्णव्यवस्था का खण्डन तो तब माना जायेगा, जब बुद्ध की दर्शनधारा में ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र जैसे शब्द ही न हों। बुद्ध तो ‘ब्राह्मणवग्गो’ में यहाॅं तक कहते हैं कि ‘ब्राह्मण पर प्रहार नहीं करना चाहिए।’ (26/7) वे ‘नागवग्ग’ में ‘ब्राह्मणपन को सबसे सुखकर भी बताते हैं।’ (23/13) सवाल यह विचारणीय है कि बुद्ध ने वर्णव्यवस्था की शब्दावली का त्याग क्यों नहीं किया, उसे स्वीकार क्यों किया?
(Guest Writer: Kanwal Bharti)


sir u cannot compare Buddha with shrikrishna as society and battlefield updesh cannot be synonymous.
बुद्ध भी वर्ण व्यवस्था को स्वीकार करते थे. बौद्ध धर्म की स्थापना पर प्रकाश डालने की कृपा करें.
‘भगवान बुद्ध ने चातुर्वर्ण को जन्माश्रित मानने से साफ इनकार कर दिया है।’
तो कृष्ण ने कब जन्म से कहा है…
चत्वारो वर्णा मया कृत्वा ‘गुण कर्म विभागशः’
गुण और कर्म के आधार पर कहा है।
मस्तिष्क में बुद्धि भी है या घास चरने गयी है।