एक बेचैन पत्‍नी का आत्‍म विलाप – Manisha Pandey

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जब से सुहासिनी आई है, आभा बेचैन रसोई से कमरे और कमरे से रसोई में फिरकी सी डोल रही है। रसोई में होती है तो भी कान लगाए रहती है कि आशु इसे गुपचुप क्‍या पढ़ा रहा है। कहीं मेरे बारे में तो बात नहीं कर रहे हैं। सब्‍जी काटते, दाल छौंकते, चावल बीनते उसके कान इधर ही जमे रहते हैं। पता नहीं, दोनों आपस में क्‍या गलचौर करते रहते हैं। बीथोवेन-सिथोवेन, राशिद खां, फासिद खां, अरे वही रोतड़ा, जो कभी तो ऐसे जोर-जोर गाने लगता है कि लगे दारू पीकर मतवाला हुआ है और कभी ऐसे रेंकता है, मानो बीवी दिनदहाड़े मर गई हो। नहीं, नहीं, बीवी नहीं, जैसे डायन महबूबा मरी हो। बीवी के मरने पर ये मुए हरामी मर्द आंसू थोड़े न बहाएंगे। तब तो उठाए तानपूरा और रेंकेगे। अच्‍छा हुआ, पिंड छूटा।
और ये सुहासिनी की बच्‍ची, कैसी बेशर्म औरत है। मेरे पति के सामने भकाभक सिगरेट फूंक रही है। कोई लिहाज नहीं है। ऐसे गला फाड़कर हंसती है कि पड़ोसियों की नींद खुल जाए। बात करते हुए क्‍या मुझे, क्‍या आशु को, पीठ पर धौल जमाती रहती है। चुड़ैल है। उसे तो बस मेरे पति को छूने का बहाना चाहिए। दिखाती तो ऐसे है कि कुछ फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मैं जानती नहीं हूं क्‍या। खूब समझती हूं उसके जैसी डायनों को। अपना घर तो बसाया नहीं, दूसरों का घर उजाड़ने की फिराक में रहती है।

अड़तीस पार हो गई, पर अभी भी कैसी झाडू की सींक है। और मैं, उससे दो-तीन बरस छोटी ही होऊंगी पर फैलकर चबूतरा हो गई हूं। इसी आदमी की वजह से। क्‍या मेरा मन नहीं करता कि मैं भी 26 कमर वाली जींस पहनकर बाजार तक हो आऊं। कमसिन हसीनाएं कैसे कमर मटकाकर चलती हैं। बेहया लड़कियां। लगता है हिप पर एक बेलन लगाऊं कसकर। कभी इनसे कहूं भी कि मुझे जिम जाना है, स्लिम-ि‍ट्रम होना है तो कूदकर मेरे ऊपर चढ़ जाएंगे। ‘क्‍या जरूरत है मेरी जान, तुम ऐसी गोल-मटोल ही अच्‍छी लगती हो मुझे। कितनी भरी-भरी, मोटी-ताजी। सूखड़ी हो जाओगी तो तुम्‍हें खाने में मजा नहीं आएगा। अभी लगता है जैसे गुलगुले गद्दे पर सवार हूं।’ मैं तो कैसे शर्म और खुशी से मर जाती हूं, जब ये मेरे मोटापे पर भी इतने कसीदे पढ़ने लगते हैं।

लेकिन फिर क्‍यों अभी इस पतरकी सींक के पीछे लगे हुए हैं। हिप डोलाती घूम रही है घर में इधर-उधर। रसोई में आकर झांककर चली जाती है। चुड़ैल कह रही है, आभा तुम भी यहां आकर बैठो हमारे साथ। क्‍या कर रही हो वहां। बेहया की जबान भी नहीं कटती बोलते हुए। मैं वहां आकर बैठ जाऊं तो खाना कौन बनाएगा उस हिरोइनी के लिए। वैसे भी दियासलाई जितनी तो है। क्‍या खाती होगी। उसकी तरह जिंदगी भर मर्दों को रिझाने के लिए कोई खाना-पीना थोड़े न छोड़ सकता है।
आशु भी कम नहीं है। उसे पता नहीं इस सड़े प्याज के छिल्के सी बदबूदार लड़की में क्या दिख गया है। सुहासिनी देखो ये वाला रिकॉर्ड, ये कलकत्ता कॉन्सर्ट की रिकॉर्डिंग है। तुम्हारा खजुराहो वाला प्रोग्राम कैसा रहा? हूं, बड़ी आई गाने वाली। ये कलछी फंसा दूंगी उस फटही बांस के गले में। फिर देखती हूं कैसे गाती है।

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