दिसम्बर 2011 में मेरठ में चलाया गया ऑपरेशन मजनू शायद आपको याद होगा. इस अभियान में पार्क जैसी सार्वजानिक जगहों में बैठे प्रेमी युगलों को साथ-साथ बैठने और घूमने के आरोप में सार्वजनिक रूप से सजा देकर अपमानित किया गया था. कई युवको पर थप्पड़ों की बरसात भी की गयी और कई जोड़ों को उठक-बैठक लगाने को कहा गया था. इनमे से कुछ जोड़े शादीशुदा थे, कुछ मंगेतर और कुछ प्रेमी युगल. 30 जोड़ों पर इस अभियान का इतना गहरा सदमा लगा था कि वह दो दिन तक अपने घर ही नहीं लौटे थे. बाद में इनका क्या हुआ इसकी भी कोई खबर नहीं है. शहर की अलग-अलग जगहों पर लगभग 200 युवकों को पकड़ा गया और उन्हें “मजनू का पिंजरा” नाम के वाहन में बैठा कर शहर के अलग अलग हिस्सों में घुमाया गया. यह पिंजरा एक ट्रक में बनाया गया था और देखने में एकदम जानवरों के पिंजरे जैसा था, जिससे बाहर से पकडे गए युवकों को साफ़-साफ़ देखा जा सके. इनमे से कुछ युवक चाय की दुकान में चाय पी रहे थे तो कुछ किसी चौराहे पर गपशप मार रहे थे. पुलिस के हिसाब से ये सब लड़के ही लड़कियों को छेड़ते हैं और इसीलिए पकड़ के उन्हें पिंजरे में बंद किया गया था. एक लड़के को तो तब पकड़ा गया जब वो अपनी बहन को कॉलेज के गेट पर छोड रहा था. जिन युवकों ने इसका विरोध किया उनके साथ मार पिटाई भी की गयी. पुलिस की गुंडागर्दी का ये नंगा नाच दिन दहाड़े शहर के बीचो-बीच तमाम टी वी चैनलों की रिकॉर्डिंग के साथ किया गया था. ये सब करने में पुलिस को किसी तरह की शर्मिंदगी का अहसास नहीं था क्योंकि ये सब वो शहर को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने के लिए कर रहे थे. पिंजरे में बंद करने की ये कार्यवाही कानून की कौन सी धारा के तहत की गयी ये स्पष्ट नहीं है, पर पुलिस के अनुसार “मजनूओं“ को सजा देने के लिए ये सामंती तरीका वाजिब था. उसके अगले दिन ये अभियान महिला पार्क में चलाया गया और युवतियों को पकड़ के अपमानित किया गया. पुलिस का कहना था कि वो ये देखने आये थे कि कहीं लड़कियां छुप छुप के लड़कों से तो नहीं मिल रही. गौरतलब है कि ये पार्क सिर्फ महिलाओं के लिए है और यहाँ कोई लड़का नहीं आ सकता.
लगभग इसी तरह के अभियान गाज़ियाबाद, कानपुर और इलाहाबाद में भी चलाये गए थे. कहा जा रहा था कि ये सब कार्यवाहियां लड़कियों के साथ होने वाली छेड़खानी को रोकने के लिए की जा रहीं थी. पुलिस का कहना था कि इस तरह के प्रेम संबंधों में लड़कों की मंशा लड़कियों का शारीरिक शोषण करने की होती है और वो लड़कियों को इससे बचाना चाहतें है. सर्वविदित है कि मेरठ और गाज़ियाबाद अपराधों के मामले में देश के अग्रणी जिलों में से हैं, ख़ासकर महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा के मामले में. महिलाओं के खिलाफ फतवे जारी करने वाली खाप पंचायतें भी इसी क्षेत्र में लगती हैं जहाँ लड़कियों के मोबाइल प्रयोग करने पर रोक लगाने से लेकर वो क्या पहने, क्या खाएं, किसके साथ घर से बाहर जाएं जैसे फतवे जारी किये जाते हैं. सब जानते हैं कि इस तरह के गैर कानूनी फतवे जारी करने वालों के खिलाफ पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की है.
पिछले हफ्ते ग्वालियर में भी इसी तर्ज पर ऑपरेशन मजनू चलाया गया और प्रेमी युगलों को सार्वजनिक रुप से प्रताड़ित किया गया. उन्हें मुर्गा बनाया गया और उठक बैठक लगवाई गयी. यहाँ भी पुलिस ज्यादती के शिकार कुछ युवक युवतियां इस घटना के बाद अगले 2-3 दिन घर से नहीं निकले. पुलिस की इस कार्रवाई ने उन्हें अहसास दिलाया कि वो कुछ गलत काम कर रहे थे और उन्हें अपने किये पर शर्मिंदा होना चाहिए. पुलिस सभी जोड़ों को धमकी दे रही थी कि वो उनके घर वालों को बुलाएगी और उनकी “काली करतूतों” से अवगत कराएगी. साथ ही साथ कई पुलिसकर्मी ये प्रवचन भी देते सुने गए कि प्रेम करना और लड़के लड़कियों का इस तरह साथ साथ घूमना “अच्छे घर“ के बच्चों को शोभा नहीं देता. ये बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि छोटे शहरों में प्रेम संबंधों को हिकारत की नज़र से देखा जाता है और इस तरह के संबंधों को समाजिक मान्यता प्राप्त नहीं है. इसी कारण युवक-युवतियां अपने प्रेम संबंधों को जग जाहिर नहीं करते और मिलने के लिए ऐसी जगह ढूँढ़ते हैं जहाँ कोई उन्हें देख ना ले. उन्हें लगातार ये अहसास दिलाया जाता है कि वो कुछ गलत काम कर रहें हैं और एक कुंठा हमेशा उन्हें घेरे रहती है. इसी कुंठा का फायदा उठा कर पुलिसकर्मी, जो खुद इस कुंठा का शिकार हैं ,युवक युवतियों को धमकाते हैं. ऐसे में पकड़े जाने पर प्रेमी युगलों की ये कुंठा और गहरी हो जाती है और कोई इसका विरोध नहीं कर पाता. इस तरह के तमाम अभियान गैर कानूनी है जिन्हें पुलिस कानूनी तौर पर अंजाम दे रही है. इस तरह की घटनाएँ और पुलिस की ज्यादतियां हमारे बीमार समाज के ही लक्षण हैं और संविधान द्वारा दी गयी स्वतंत्रता के अधिकार के विरुद्ध हैं. हमारा समाज हमेशा से व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता को हिकारत की नज़र से देखता आया है और सामाजिक मूल्यों और नैतिकता के नाम पर इसका दमन करता आया है. और अगर मामला लड़कियों की स्वतंत्रता का हो तो ये व्यवस्था और दमनकारी हो जाती है. सबसे दिलचस्प पहलु ये है कि ये सब महिला सुरक्षा के नाम पर ही किया जा रहा है .
जिस दिन ग्वालियर में ये ऑपरेशन मजनू चलाया जा रहा था उसके अगले ही दिन 9 मई 2013 को शहर में एक और घटना घटी. 35 साल की एक महिला ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली . आत्महत्या से पहले ये महिला “महिला सुरक्षा के लिए तत्पर“ ग्वालियर पुलिस के पास उसके साथ हो रहे बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने गयी थी. महिला का कहना था कि उसका भाई पिछले २५ सालों से उसके साथ बालात्कार कर रहा है. पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज करने से इंकार कर दिया और साथ ही उसका मजाक भी उडाया. पुलिस ये मानने को तैयार नहीं थी कि कोई भाई अपनी बहन के साथ बलात्कार कर सकता है. इस बात को मानने से उनकी बहन भाई के पवित्र रिश्ते की धारणा को ठेस पहुँचती थी और उनके सामजिक मूल्यों का ह्रास होता था. इस महिला के साथ 10 साल की उम्र से ही उसका भाई बलात्कार कर रहा था और हमारा पवित्र परिवार और ऊँचे मूल्यों वाला ये समाज उसे सुरक्षा प्रदान नहीं कर पाया. कुछ समय बाद लड़की की शादी कर दी गयी पर उस भाई की ज्यादतियाँ जारी रही. लड़की के पति को जब पता चला तो जन्म-जन्म का साथ निभाने की कसमे खाने वाले पति ने उसे घर से निकल दिया. कुछ समय से ये महिला अपनी बहन के साथ रह रही थी. कुछ दिन पहले ये “भाई“ सामाजिक परम्पराओं और रीती रिवाजों का वास्ता देकर अपने घर ले आया कि भाई के होते हुए कोई कैसे अपनी बहन के ससुराल में रह सकता है. भाई के घर आने के बाद बालात्कार का वही सिलसिला फिर शुरू हुआ जो 25 सालों से चलता आ रहा था. परिवार के भीतर होने वाले इस शोषण की सुनवाई कहाँ हो. एक दिन हिम्मत कर के इस महिला ने ठाना कि वो अब और नहीं सहेगी और पुलिस से अपनी सुरक्षा की गुहार लागयेगी. उसे नहीं मालूम था कि पुलिस थाना भी पितृसत्तात्मक संरचना का हिस्सा हैं जो मानता है कि घर की बात घर में रहे और परिवार जैसी संस्था की पवित्रता पर कोई आंच ना आये. पुलिस थाने में उसकी बात का विश्वास करने वाला कोई नहीं था जो उसकी रिपोर्ट दर्ज करता .बल्कि उसकी शिकायत का मजाक उड़ाया गया और बिना रिपोर्ट दर्ज किये उसे लौटा दिया. उससे अपने भाई के खिलाफ सबूत लाने को कहा गया जैसे कि अभियुक्त के खिलाफ सबूत जुटाना पीड़ित का काम है ना कि पुलिस का. महिला के बार बार गुहार लगाने पर उसके भाई के खिलाफ मात्र मार पिटाई की रिपोर्ट दर्ज करी गयी. 25 साल शोषण सहने के बाद उसने हिम्मत की थी कि आवाज उठाये पर उसकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं था. अब वो जीवन के उस चौराहे पर खड़ी थी जहाँ उसे सभी रास्ते बंद दिख रहे थे. पति उसे पहले ही घर से निकाल चुका था. जल्लाद भाई के खिलाफ आवाज़ उठाने के बाद पैतृक घर में भाई के साथ वह रह नहीं सकती थी या हो सकता है कि उसने तय किया हो कि इस तरह घुट-घुट के जीवन जीने से अच्छा है कि उसे इससे छुटकारा मिल जाये. सो पुलिस थाने से लौट कर उसने ख़ुदकुशी कर ली. महिला सुरक्षा के लिए अभियान चलाने वाली इस पुलिस के पास उस महिला की सुरक्षा के लिए कुछ भी ना था. इसी तरह 16 मई 2013 को ग्वालियर के जनकगंज क्षेत्र में रहने वाली 14 साल की एक लड़की ग्वालियर पुलिस के महिला थाने में उसके पड़ोस में रहने वाले पुलिसकर्मी के खिलाफ छेड़खानी का मामला दर्ज करने गयी थी. उसने सुना था कि महिला थाने में महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा की सुनवाई होती है. घंटो थाने में बैठने के बावजूद उसकी शिकायत दर्ज नहीं हुई. इस लड़की ने भी अपने पर मिटटी का तेल डालकर खुद को जलाने की नाकाम कोशिश की.
ऊपर दी गयी घटनाओं से स्पष्ट है कि हमारे पुलिस थाने भारत के संविधान के अनुसार नहीं बल्कि बीमार समाज की घिसी-पिटी मान्यताओं और पितृसत्ता के मूल्यों के अनुसार महिला हिंसा के मामलों को देखते हैं. उनके हिसाब से प्रेमी युगलों के प्रेम प्रसंग लड़कियों के खिलाफ होने वाली हिंसा का मुख्य कारण हैं और लड़कियों को इससे बचाना चाहिए. अक्सर माँ बाप जब अपनी गुमशुदा लड़कियों की रिपोर्ट दर्ज कराने जाते हैं तो पुलिस यह कह कर लौटा देती है कि लड़की अपने आशिक के साथ भाग गयी होगी. लड़की को ढूँढने के बजाय परिवार को अपनी “इज्जत” बचाने की सलाह दी जाती है और परिवार को यह अहसास दिलाया जाता है कि उसने कैसे एक “कुलक्षणी” को जन्म दिया है. बॉलीवुड में बनने वाली 90 फीसदी फिल्में प्रेम प्रसंगों पर आधारित होती हैं पर वास्तविक जीवन में अपनी पसंद का लड़का चुनना किसी अपराध से कम नहीं ही. पुलिस का ये रवैया ये सन्देश देता है कि महिला स्वतंत्रता और सुरक्षा एक साथ सुनिश्चित नहीं की जा सकती. अगर लड़कियों को सुरक्षा चाहिए तो उन्हें अपना साथी चुनने की स्वतंत्रता का त्याग करना होगा और घर की दहलीज के दायरे में रहना होगा. घर की दहलीज के अंदर किस तरह का शोषण होता है ये पुलिस की कल्पना से बाहर है. साथ ही पुलिस का ये भी मानना है कि परिवार में होने वाले लैंगिक और अन्य तरह के शोषणों को परिवार के भीतर ही रहना चाहिए और परिवार में ही उनका निपटारा होना चाहिए. संविधान में मुहैया कराई गयी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का इनके लिए कोई मोल नहीं है. प्रेमी युगल प्रेम प्रसंगों में पड़कर अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर रहें हैं और उसे रोकना चाहिए. मजनू के पिंजरे में बिठा कर शहर में घुमाने जैसे सामंती सजा के तरीके का इस्तेमाल बदस्तूर जारी है. पर इस तरह के सामंती व्यवहार में इतना हैरान होने की बात नहीं है. हमारा संविधान तो प्रगतिशील और लोकतान्त्रिक है पर उसे लागू करने वाली कार्यपालिका सामंती मानसिकता से ग्रसित है. अगर दयित्ववाह्क सामंती होंगे तो उनके तौर तरीके सामंती होना लाजमी हैं. शिकायत करने आने वाली महिलाओं को घंटो थाने में बैठाए रखना और उनके साथ दुर्व्यवहार करना भी इसी मानसकिता का परिचायक है और उनकी शिकायत दर्ज ना करना भी उसी मानसिकता का. प्रगतिशील संविधान और घिसी पिटी मान्यताओं का ये द्वन्द जारी है और लोकतान्त्रिक और सामंती मूल्यों का भी. साथ ही साथ सड़े गले समाज में बदलाव की हमारी लड़ाई भी जारी है.
यूं ही हमेशा उलझती रही है यूं हीं जुल्म से खल्क , ना उनकी रस्म नयी है ना अपनी रीत नई यूं ही खिलाएं है हमेशा हमने आग में फूल, ना उनकी हार नई है ना अपनी जीत नई -फैज़
किशोर झा
(लेखक डेवलेपमेंट प्रोफेश्नल हैं और पिछले 20 साल से बाल अधिकारों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।)

