उसने अपनी बेटी के लिए एक कविता लिखी थी। उसने कामना की थी कि उसकी बेटी हरसिंगार सी खिले और हर ओर छा जाए। बेले सी उसकी खुशबू संसार की वादियों में बिखर जाए। वह पहाड़ी बर्फ सी निर्मल हो। उसकी चमक के आगे शर्मसार हों सितारे। वह अलकनंदा सी बहे और राह की हर चट्टान को निर्मल कर दे। वह हवाओं सी उन्मुक्त हो और हिमालय सी उदात्त।
पिता ने चाहा कि वह संसार के हर बंधन से ऊपर उठ सके। वह अपनी अंतरात्मा में अवस्थित हो। हवाएं उसका रूप गढ़ें और प्रकृति उसका मन। उस कविता में बेटी के लिए प्रेम, गरिमा, उदात्तता और स्वतंत्रता की सम्मोहक पुकार थी।
तू निर्बंध सारी धरती पर घूम सके
अपने दीवाने को तू चूम सके।
इसी सदी के पूर्वार्द्व में पहाड़ों की गोद में बैठा एक पिता कह रहा था अपनी बेटी से कि अपने दीवाने को तू चूम सके।
बेटी तब महज दो साल की थी।
मां ने सुनी कविता। आखिरी पंक्ति पर अटक गई। ये क्या दीवानों सी बातें करते हो तुम। मैं कभी अपनी बेटी को यह कविता पढ़ने नहीं दूंगी, मां ने बनावटी गुस्से में कहा।
उस रात जब सोई थी मां और दो साल की बच्ची उसके सीने से लिपटी, मां सोच रही थी। उस रात मां को पहली बार थोड़ा रश्क हुआ अपनी बेटी से। कैसा पिता मिला है इसे? मां ने अपने पिता से तुलना की अपनी बेटी के पिता की। भीतर कुछ टूटा। फिर मां ने धीरे से झुककर बेटी को चूम लिया और बोली,
तू निर्बंध सारी धरती पर घूम सके
अपने दीवाने को तू चूम सके।
(मेरे एक दोस्त ने अपनी बेटी के लिए एक लंबी कविता लिखी थी और उसी कविता की एक पंक्ति थी यह – अपने दीवाने को तू चूम सके।)
मनीषा पांडे
http://www.bedakhalidiary.blogspot.in/search?updated-max=2010-03-27T12:39:00-07:00&max-results=10
