आलोकधन्वा की नज़र में मैं रंडी थी

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आज दोपहर में मुझे एक फोन आया. उधर से एक परिचित और वरिष्ठ सज्जन थे, जिन्होंने खासी नाराजगी से कहना शुरू किया कि असीमा जैसी औरत से यह सब लिखवा कर ‘तुमलोग’ ठीक नहीं कर रहे हो. आलोक आत्महत्या कर लेगा, अगर उसे अधिक प्रताडि़त किया गया. कई दशकों से पटना में जनवाद और अभिव्यक्ति की आज़ादी की लडा़ई लड़ने का दावा करनेवाला वह शख्स आज मुझसे कह रहा था कि असीमा को कुछ भी लिखने का अधिकार नहीं है और न दिया जा सकता है क्योंकि बकौल उनके ‘असीमा के कई लोगों से संबंध रहे हैं.’ मैं हतप्रभ था. उन्होंने कहा कि नंदीग्राम हत्याकांड के समय उसकी निंदा करनेवाले बयान पर आलोकधन्वा ने चूंकि हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था, इसलिए उससे बदला लेने के लिए तुमलोग उसे बरबाद कर रहे हो, असीमा के ज़रिये. वे बके जा रहे थे-असीमा की कोई औकात नहीं है. उसे दुनिया सिर्फ़ आलोकधन्वा की पत्नी के रूप में जानती है. उसके कोई स्वतंत्र पहचान, व्यक्तित्व नहीं है. उस औरत को इतना मत चढा़ओ तुमलोग.

मैं नहीं जानता कि जनवाद क्या होता है, अगर वह एक औरत के बारे में इस तरह के शब्द इस्तेमाल करने की इजाज़त देता है. और उन्होंने जिस अभद्र भाषा का प्रयोग बार-बार किया, वह निहायत शर्मनाक थी, इसलिए भी कि हम उन्हें एक गंभीर आदमी समझते थे. हम आलोकधन्वा को बेहद प्यार करते थे, एक कवि के रूप में. आज भी उनकी कविताएं हमें अपने समय में सबसे प्यारी हैं-इसके बावजूद असीमा के सवाल और उनका दर्द हमें असीमा के साथ खडा़ करता है.
अब तक आपने इस आत्मसंघर्ष की दो किस्तें ( 1, 2 )पढी हैं. आज पढिए अंतिम किस्त.

दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना-3
असीमा भट्ट

अब मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा था. शाहिदा जी के पास अक्सर जाती थी. वहीं मुझे जरा तसल्ली मिलती थी. कई बार उन्होंने मेरे पति से बात की, उन्हें समझाने की कोशिश की पर सब बेकार.
जहां तक एक कवि और उनकी कविता से प्रेम का संबंध है तो वह मुझे आज भी है. मैं उनकी बातों और कविता की मुरीद थी. वे बातें करते हुए मुझे बहुत अच्छे लगते. ऐसा लगता है- ‘इत्र में डूबे बोल हैं उनके, बात करे तो खुशबू आये.’

मेरे द्वंद्व और दर्द का एक बड़ा कारण यह भी था कि जो इनसान घर से बाहर अपनी इतनी सुंदर, शालीन, संभ्रांत, ईमानदार, नफासतपसंद छवि प्रस्तुत करता है वही घर में सिर्फ मेरे लिए इतना अमानवीय क्यों हो जाता है? बात-बात पर ताने, डांट! कई बार इस कदर जीना दूभर कर देते कि मैं खुद दीवार से अपना सिर पीट लेती. अपने आपको कष्ट देती. एक बार याद है, मुझे आफिस जाने के लिए देर हो रही थी. उनके लिए पीने का पानी उबालना था. यह रोज का सिलसिला था. लगभग आधे घंटे पानी उबालना, जब तक पतीली के तले में सफेदी न जम जाये. मैं जल्दी में थी, इसलिए ज्यादा देर पानी उबालना संभव नहीं था कि तभी वे अपनी तुनकमिजाजी के साथ बहस लेकर बैठ गये-‘तुम्हारा ऑफिस कोई पार्लियामेंट नहीं है जो समय पर जाना जरूरी है. पहले पानी घड़ी देख कर आधा घंटा उबालो.’

-आपको क्या लगता है, डिसिप्लीन सिर्फ पार्लियामेंट में होना चाहिए और बाकी कहीं नहीं?
इसी बात पर उन्हें गुस्सा आ गया और उन्होंने चिल्लाना शुरू कर दिया. मैंने गुस्से में पूरा उबलता हुआ गरग पानी का पतीला अपने ऊपर उंड़ेल लिया, लेकिन उन पर कोई असर न हुआ. इस तरह की अनगिनत घटनाएं हैं, जहां मैं अपने आप को ही यातना देती रही.

आखिरकार मैंने अपने पिता जी (मेरे पिता मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के मेंबर हैं. पूरा जीवन उन्होंने समाज सेवा में बिताया) से बात की. उन्होंने कहा-भूल जाओ उसे और अपने पैरों पर खड़ा होना सीखो.

मैंने एक बच्चे की तरह गिड़गिड़ाते हुए अपने पति से तलाक मांगा- सर अब आपके साथ मेरा दम घुटता है. मुक्त कर दीजिये मुझे. हम आपसी समझ से तलाक ले लेते हैं.

उनके लिए मेरा यह कहना असहृय था. उन्होंने अपने माता-पिता की दुहाई दी-अपने बूढ़े माता-पिता को इस उम्र में मैं कोई सदमा नहीं पहुंचा सकता. मेरे भाइयों के बच्चों की शादी नहीं होगी. लोग क्या कहेंगे? मेरी क्या इज्जत रह जायेगी? मैं ने इस उम्र में शादी की. तुम पूरी दुनिया में मेरी पगड़ी उछालना चाहती हो?
अब तो उनके माता-पिता को गुजरे भी बहुत समय हो गया लेकिन वे आज तक तलाक को टालते आ रहे हैं. मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. मैं जिस इनसान को जानती थी, वह तो एक कम्यूनिस्ट था, लेकिन यहां मैं एक रूढ़िवादी सामंती पति को देख रही थी-साहब, बीबी और गुलाम के एक ऐय्याश और घमंडी पति की तरह, मैं एकदम से सब कुछ हार गयी थी. मेरा तो जैसे सब कुछ खत्म हो गया. वो कवि भी नहीं रहा, जिसे मैं प्यार करती थी. मेरे लिए वह दुनिया के बेहतरीन कवि थे, जिसकी कविता में मुझे झंकार सुनायी देती थी. आज मेरी ही जिंदगी की झंकार खो गयी. मैं कुछ भी नहीं बन पायी. न पत्नी, न मां. क्या थी मैं? अस्तित्व का सवाल खड़ा हो गया मेरे सामने. दोबारा उन्हीं डाक्टर दोस्त के पास गयी. शाहिदा जी ने मेरी जिंदगी बदल दी. उन्होंने समझाया-तुम पढ़ी-लिखी हो, सुंदर हो, यंग हो तुम्हारे सामने तुम्हारी पूरी जिंदगी पड़ी है. गो एहेड लिव योर लादफ, गिव चांस टु योरसेल्फ डोंट शट द डोर फॉर लव, कोई आता है तो आने दो.

उन दिनों मैं इप्टा में, रक्तकल्याण कर रही थी. उसमें अंबा और इंद्राणी दोनों चरित्र मैं करती थी. लोगों ने मेरे अभिनय को बहुत पसंद किया. एक ही नाटक में दो अलग-अलग चरित्र जो एक दम कंट्रास्ट थे, करना मेरे लिए एक चुनौती थी. वहीं से राष्ट्रीय नाटक विद्यालय आने का रास्ता सूझा, हालांकि यह बहुत मुश्किल था. मेरे पति इसका जितना विरोध कर सकते थे, उन्होंने किया. उनकी मरज़ी के खिलाफ घर से भाग कर मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की परीक्षा के लिए गयी. अंतत: मेरा नामांकन नाट्य विद्यालय में हो गया. अब मेरे पति को मुझे खोने का डर और सताने लगा और वे भी मेरे पीछे-पीछे दिल्ली आ गये. वहां भी मैं खुल कर सांस नहीं ले पा रही थी. हर पल जैसे मैं किसी की पहरेदारी में हूं. मेरे क्लासमेट इसका बहुत मजाक उड़ाते थे. जाहिर है हमारे बीच उम्र का अंतराल भी सबके लिए उत्सुकता का विषय था. वे तरह-तरह की बातें करते. अब मेरे पति का व्यवहार और भी बदल गया था. लगातार मुझे खो देने की चिंता उन्हें लगी रहती, इस वजह से वे और भी अधिक असामान्य और अमानवीय व्यवहार करने लगे. यहां तक कि मैं किसी भी सहपाठी या शिक्षक से बात करती, उन्हें लगता, मैं उससे प्रेम करती हूं.

मैंने हमेशा उन्हें समझाने की कोशिश की कि वे बेकार की इन बातों को छोड़ कर लिखने-पढ़ने में अपना ध्यान लगायें. लिखने के लिए उन्हें सुंदर-सुंदर नोट बुक, हैंड मेड पेपर और कलम ला कर देती. बड़े-बड़े लेखकों-विद्वानों के वाक्य लिख-लिख कर देती ताकि वे खुद लिखने के लिए प्रेरित हों. गालिब की मजार और निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर ले जाती. खूबसूरत फूल उपहार में देती, पर मेरी किसी बात का उन पर कोई असर नहीं होता. मुझे समझ में नहीं आ रहा था आखिर इन्होंने लिखना बंद क्यों कर दिया है और मैं दिन पर दिन चिड़चिड़ी होती जा रही थी. मेरा भी अपनी पढ़ाई से मन उचट रहा था.

मैंने अपने पति में कई बार भगोडी़ और कायर प्रवृत्ति देखी. मुझे याद है शादी के तीन वर्ष बाद मैं ससुराल गयी थी, वहां सब लोग मुझसे यह जानने की कोशिश कर रहे थे कि मुझे अब तक बच्चा क्यों नहीं हुआ. कुछ दिन पहले ही मेरी अबार्शनवाली घटना हुई थी. मैं रो पड़ी. मेरे पास कोई जवाब नहीं था. मैंने सिर्फ इतना कहा, मैं बांझ नहीं हूं, लेकिन मेरे पति ने इसका कोई जवाब नहीं दिया बल्कि उन्हें अपने पौरुष पर संकट उठता देख मुझ पर गुस्सा आया, जबकि सेक्स हमारे बीच कोई समस्या नहीं थी.

जिस आदमी ने मुझसे मां बनने का गर्व छीन लिया वह मुझ पर यह आरोप भी लगाता है कि मैंने एनएसडी में एडमिशन के लिए उससे शादी की और कैरियर बनाने के लिए बच्चा पैदा नहीं किया. मेरी शादी 1993 में हुई और चार साल शादी बचाने की सारी जद्दोजहद के बाद मैं एनएसडी में 1997 में आयी. क्या एनएसडी में एडमिशन के लिए आलोकधन्वा से शादी करना जरूरी था. शादी के चार साल बाद उन्होंने मेरा एडमिशन क्यों कराया. अगर शादी करना एडमिशन की शर्त थी तो शादी के साल ही एडमिशन हो जाना चाहिए था. मेरा गर्भपात 1995 में हुआ. उस समय न मैं एनएसडी में थी और न कैरियर के बारे में मैंने सोचा था. जबकि दुनिया की हर औरत की तरह एक पत्नी और मां बनने का सपना ही मेरी पहली प्राथमिकता थी. जहां तक आलोक का सवाल है, वह पिता इसलिए नहीं बनना चाहते थे क्योंकि वह कोई भी जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते थे. हद तो उन्होंने तब कर दी, जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के द्वितीय वर्ष में मुझे एक्टिंग और डायरेक्शन में से किसी एक को चुनना था. मैं एक्टिंग में स्पेशलाइजेशन करना चाहती थी. उन्होंने इसका कड़ा विरोध किया. उनका दबाव था कि मैं डायरेक्शन लूं. हमारी इस बात पर बहुत बहस हुई. उन्होंने इतना दबाव बनाया कि मानसिक तनाव के कारण मैं डिप्रेशन में चली गयी. बाद में अनुराधा कपूर ने समझाया-तुम बेहतरीन अभिनेत्री हो. यू मस्ट टेक एक्टिंग. मैंने एक्टिंग ली. मेरे पति का विरोध बरकरार रहा. उन्होंने अनुराधा कपूर पर भी आरोप लगाया कि वह फेमिनिस्ट है. तुम्हें बहका रही है. वह तो मुझे अब समझ में आ रहा है कि वह आखिर किस बात पर इतने नाखुश थे. दरअसल मुझे अभिनय अलग-अलग लड़कों के साथ करना पड़ता. अलग-अलग नाटकों में अलग-अलग चरित्र और प्रेम के दृष्य करूंगी. उनकी कुंठा यहां थी. एक तरह की असुरक्षा की भावना उनमें घर कर गयी थी. काश कि वे समझ पाते कि मेरे मन में प्रेमी के रूप में उनके अलावा कोई दूसरा नहीं था. मैं उन्हें बहुत प्यार करती थी. दुनिया की तमाम खूबसूरत चीजों में मैं उन्हें देखती थी. मेरा सबसे बड़ा सपना था वे कविता लिखे और मैं अभिनय करूं. दुनिया देखे कि एक कवि और अभिनेत्री का साथ कैसा होता है. एक छत के नीचे कविता और अभिनय पनपे. मैं उनकी कविताओं को हद से ज्यादा प्यार करती थी. आज भी उनकी पंक्तियां मुझे जबानी याद हैं. मैं उनकी कविताओं की दीवानी थी. कई बार मैं उन्हें कोपरनिकस मार्ग पर बने पुश्किन की प्रतिमा के पास ले जाती. उनकी तुलना पुश्किन से करती ताकि उनका आत्मविश्वास बढ़े.

इस बीच उन्हें गले में कैंसर की शिकायत हुई. एक बच्चे की तरह उन्होंने अपना धीरज खो दिया और जीने की उम्मीदें भी. उन्हें डर था कि अब वे नहीं बचेंगे. पति ऐसे दौर से गुजर रहा हो तो एक पत्नी पर क्या बीतती है, इसका अंदाजा कोई भी पत्नी लगा सकती है. एक बच्चे की तरह उन्हें समझाती रही-कुछ नहीं होगा. फर्स्ट स्टेज है. डाक्टर छोटा-सा आपरेशन करके निकाल देंगे. उसी शहर में अकेले मैंने अपने पति के कैंसर का ऑपरेशन कराया, जहां वे मुझे बिल्कुल अकेली और बेसहारा छोड़ कर गये.

वे अक्सर जब लड़ते तो मुझे कहते- तुम मुझे समझती क्या हो? मैंने इसी दिल्ली में शमशेर और रघुवीर सहाय के साथ कविताएं पढ़ी हैं. मेरे नाम पर हॉल ठसाठस भरा रहता था और लोग खड़े होकर मेरी कविता सुनने के लिए बेचैन रहते. आज उसी शहर में लोग उसकी पत्नी की कीमत लगा रहे थे. दीवार क्या गिरी मेरे खस्ता मकान की, लोगों ने उसे आम रास्ता बना दिया. बिहार में एक कहावत है कि जर, जमीन और जोरू को संभाल कर न रखा जाये तो गैर उस पर कब्जा कर लेते हैं. अब हर आदमी की निगाह मुझ पर उठने लगी.

मेरे पति जिस वक्त मुझे छोड़ कर गये, उस वक्त मुझे उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी. मैंने एनएसडी से प्रशिक्षण तो प्राप्त कर लिया था पर रेपर्टरी में काम नहीं मिल पाया. अब आगे क्या करना है, पता नहीं था. एकदम शून्य नज़र आ रहा था. उनके जाने के साथ ही एक दूसरे किस्म का संघर्ष शुरू हो गया. सबसे अजब बात तो यह थी कि जैसे ही लोगों को पता चलता मैं अकेली रहती हूं, उनके चेहरे का रंग खिल जाता. मैं बिना किसी पर आरोप लगाये यह कहना चाहती हूं कि मुझे हासिल करने की कोशिश ऐसे शख्स ने भी की जिसकी खुद कोई औकात नहीं थी या फिर वैसे लोग थे जिनके अपने हंसते-खेलते परिवार थे. प्यारे-प्यारे और मेरी उम्र के बच्चे थे. वो अपनी और बच्चों के लिए दुनिया में सबसे अच्छे और ईमानदार पति और बेस्ट पापा थे और समाज में उनकी प्रतिष्ठा थी. खैर अब मुझे इन बातों पर हंसी आती है. जिंदगी को इतने करीब से देखा कि अब किसी से कोई शिकायत नहीं. लोग मुझसे अजीव-अजीब सवाल पूछते, तुम अकेली कैसे रहती हो, तुम्हारा सैक्समेट कौन है. आज जो बातें मैं इतनी सहजता से लिख रही हूं उस समय ऐसा लगता जैसे कोई गरम सीसा मेरे कान में उंड़ेल रहा है.

जब लोगों को पता चला कि हमारे बीच दरार है तो उन्होंने भी मेरा भरपूर इस्तेमाल करने की कोशिश की. मेरे पति की किताब की रॉयल्टी मेरे नाम से है और मुझे आज तक एक पैसा नहीं मिला है. पिछले सालों में मैंने भी उनसे कुछ नहीं मांगा लेकिन अभी हाल ही में मेरी छोटी बहन की शादी के लिए मुझे रुपये की जरूरत थी तो मैंने अपना अधिकार मानते हुए रॉयल्टी की मांग की. उन्होंने (प्रकाशक ने) मुझे बदले में पत्र भेजा कि वह रॉयल्टी का पैसा कवि को दे चुके हैं. जवाब में मैंने पत्र लिखा कि जिसके नाम रॉयल्टी होती है पैसे भी उसे मिलने चाहिए तो उन्होंने मुझे बदनाम करने की कोशिश की. उन प्रकाशक के मित्र, जो मेरे अभिनय के प्रशंसक रहे हैं, फोन करके मुझे खचड़ी और बदमाश औरत जैसे विशेषणों से नवाजते हैं और कहते हैं कि वह जिंदा है तो तुम्हारा हक कैसे हो गया उसकी किताब पर? मैंने जवाब दिया कि मैं किसी की रखैल नहीं हूं, संघर्ष करती हूं तो गुजारा होता है. मैं अपने हक का पैसा मांग रही हूं. एक औरत जब अपने हक की आवाज उठाती है तो उसके विरुद्ध कितनी तरह की साजिश होती है. वह आदमी जो पूरी दुनिया में डंका पीटता है कि वह मुझे बेहद प्यार करता है, वह मेरे बिना जी नहीं सकता, वह मेरे वियोग में मनोरोगी हो गया, उससे मैं पूछती हूं, क्या उसने पति के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभायी? क्या उसने मुझे सामाजिक और भावानात्मक सुरक्षा दी? क्या उसने आर्थिक सुरक्षा दी? सभी जानते हैं मैं पिछले छह साल से अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हूं. पिछले छह साल से नितांत अकेली एक विधवा की तरह जी रही हूं. क्या वे मेरी तमाम रातें वापस लौटा सकते हैं? भयानक अपमान के दौर से गुजरे दिनों का खामियाजा कौन भरेगा? जिसके लिए मैंने अपने जीवन की तमाम बेशकीमती रातें रोकर बितायीं, वह मेरे लिए क्या एक बार मेरी उम्र के बराबर आ कर सोच सकता है? मैं अपनी उम्र की सामान्य लड़की की तरह क भी नहीं जी पायी. कभी पति के साथ कहीं घूमने नहीं गयी, पिक्चर या पार्टी में नहीं गयी. कितनी तकलीफ होती है जब एक स्त्री अपने तमाम सपने को मार कर जीती है.

छह साल से मैं अकेली एक ही घर में रह रही हूं, यह मेरे चरित्र का सबसे बड़ा सबूत है. मेरे मकान मालिक मुझे बेटी की तरह मानते हैं. मेरे घर न पुरुष है, न पुरुष की परछाईं. पर जब मैं एक बार अचानक पटना गयी तो अपने बेडरूम में मैंने दूसरी औरत के कपड़े देखे. इतना सब देखने के बाद क्या कर सकती थी मैं ? और क्या रास्ता था मेरे पास?

दिन-पर-दिन मैं असामान्य होती जा रही थी. न किसी से मिलने का मन होता न बात करने का. कोई हंसता तो लगता कि मेरे ऊपर हंस रहा है. कभी मैं देर रात तक दिल्ली की सुनसान सड़कों पर अकेली भटका करती. घर आने की मेरे पास कोई वजह नहीं थी. न किसी को मेरे आने का इंतजार, न कहीं जाने की परवाह. ऐसा लगता था, या तो आत्महत्या कर लूं या किसी कोठे पर जा कर बैठ जाऊं. लेकिन नहीं, अन्य दूसरे भले घर की बेटियों की तरह मेरे मां-बाप ने भी मुझे अच्छे संस्कार दिये थे, जिसने मुझे ऐसा कुछ करने से बचाया.

अपनी बीवियों पर खुलेआम चरित्रहीनता का आरोप लगानेवाले मर्द बड़ी आसानी से यह भूल जाते हैं कि वे खुद कितनी औरतों के साथ आवारगी कर चुके हैं. नहीं, किसी मर्द में स्वीकार करने की हिम्मत नहीं होती. देश का अत्यंत प्रतिष्ठित कवि, जिसके शब्दों में मैं एक रंडी हूं, उसकी आखिर क्या मजबूरी है मुझे हासिल करने की? क्यों नहीं वह मुझे अपनी जिंदगी से निकाल बाहर करता? मैंने तलाक के पेपर बनवाये. कमलेश जैन (प्रतिठित अधिवक्ता) गवाह हैं. मैंने अपने भरण-पोषण के लिए कुछ भी नहीं मांगा. तब भी वह मुझे तलाक नहीं दे रहा, बल्कि मुझे हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहा है. अपने मित्रों मंगलेश डबराल और उदयप्रकाश तक से पैरवी करवा रहा है, क्यों? इन सबके आग्रह और आलोक के माफी मांगने पर मैंने उन्हें एक मौका दिया भी था, लेकिन एक सेकेंड नहीं लगा, उन्हें अपने पुराने खोल से बाहर आने में. एकांत का पहला मौका मिलते ही पूछा-तुम्हारे कितने शारीरिक संबंध है?

मैं हैरान! अगर मेरे बारे में यह धारणा है तो मुझे पाने के लिए इतनी मशक्कत क्यों की?

आलोक जब मुझे हासिल करने में हर तरह से नाकामयाब हो गये तो उन्होंने मुझसे कहा-तुम रंडी हो, तुम्हारी कोई औकात नहीं, बिहारी कहीं की. दो कौड़ी की लड़की. शादी से पहले तुम्हें जानता कौन था. मेरी वजह से आज लोग तुम्हें जानते हैं, तुम जो कुछ भी हो, मेरी वजह से हो. मेरे आत्मसम्मान को ऐसी चोट पहुंची कि तंग आ कर मैंने अपने पिता का बचपन में दिया हुआ नाम क्रांति बदल लिया, जबकि मैं क्रांति भट्ट के नाम से अभिनय के जगत में अपनी पहचान बना चुकी थी.

मुझे अपने पिता का इतने प्यार से दिया हुआ नाम बदलने में बहुत तकलीफ हुई थी. अभी हाल में जब मैं अपने पिता से मिली तो उनसे माफी मांगते हुए कहा, माफ कीजिए. मुझे मजबूरीवश अपना नाम बदलना पड़ा. उन्होंने जवाब दिया- कोई बात नहीं. ठीक ही किया. क्रांति असीम है. क्रांति कभी हारती नहीं. क्रांति कभी रुकती नहीं. रिवोल्यूशन इज अनलिमिटेड.

मैं बिना किसी शिकायत और शिकन के आज कहना चाहती हूं- हां, दर्द हुआ था. अपने पति के मुह से रंडी का खिताब पा कर बहुत दर्द हुआ था तब जब उस इनसान ने मुझ पर इतना घिनौना आरोप लगाया. वह इनसान जिसका मैंने सारी दुनिया के सामने हाथ थामा. वह इनसान जिसके बच्चे को मैंने गर्भ में धारण किया. जो खुद मेरी गोद में मासूम बच्चे की तरह पड़ा रहता था. उसने आज पूरी दुनिया के सामने मेरी इज्जत को तार-तार कर दिया. मैं आज तक इस बात को नहीं समझ पायी कि जब दो इनसान इतने करीब होते हैं, वहां ऐसी बातें आ कैसे जाती हैं. ऐसी ठोस कुंठा और भयंकर इगो.

बहुत दर्द और लंबी यातना से गुजरी इस बीच. नितांत अकेली कोई नहीं था. बंद कमरे में खुद से बातें करती थी. ऊंचे वॉल्यूम में टीवी चला कर जब रोती थी तो किसी का कंधा नहीं था. बीमार पड़ी रहती थी, कोई देखनेवाला नहीं, दवा ला कर देनेवाला नहीं. पर आज सब कुछ सामान्य लग रहा है. जब कोई घाव पक जाता है तो दर्द देता ही है और उसका फूट कर बह जाना अच्छा ही है, चाहे दर्द जितना भी हो. घाव के पकने और बहने का यही सिलसिला है. मेरा घाव भी पक कर बह गया. दर्द हुआ. बेशुमार दर्द हुआ, लेकिन अब जख्म भर गया है. दर्द भी अपनी मुराद पूरी कर चुका.

मैं अपने अभिनय में अपनी काबिलियत की परीक्षा छह साल से दर्शकों को दे रही हूं और शुक्रगुजार हूं वे मुझे प्यार करते हैं. अब मेरी अपनी एक जमीन है, एक पहचान है.
जब मैं राम गोपाल बजाज के साथ गोर्की का नाटक तलघर कर रही थी तो बजाज जी ने मुझसे कहा था-बहुत सालों के बाद नाट्य विद्यालय में सुरेखा सीकरी और उत्तरा वावकर की रेंज की एक्ट्रेस आयी. सिर्फ़ अपने काम की वजह से एनएसडी में मुझे सारे क्लासमेट और सीनियर, जूनियर का प्यार मिला. मेरी काम के प्रति शिद्दत और लगन की वजह से हमेशा चैलेंजिंग रोल मिले. चाहे ब्रेख्त का नाटक गुड वुमन ऑफ शेत्जुआन हो या इब्सन के वाइल्ड डक में मिसेज सॉवी या चेखव के थ्री सिस्टर्स की छोटी बहन याविक्रर्मोवंशीय में उर्वशी की भूमिका.

एनएसडी के बाद सारवाइव करने के लिए मैं सोलो करती हूं. एक बार जेएन कौशल साहब ने कहा था- 10 लाइन बोलने में एक्टरों के पसीने छूटते हैं. सोलो के लिए तो बहुत माद्दा चाहिए. तुम एक बेमिसाल काम कर रही हो.
मेरे प्यार में पागल या मनोरोगी होने का ढिंढोरा पीटनेवाला दरअसल इस बात से ज्यादा दुखी है कि जिसे वह दो कौड़ी की लड़की कहता था, वह हार कर, टूट कर वापस उसके पास नहीं आयी. उन्हें इस बात का बहुत बेसब्री से इंतजार था कि एक-न-एक दिन मैं उनके पास लौट आऊंगी. इसलिए उन्होंने मुझे आज तक तलाक नहीं दिया. उनके पुरुष अहं को संतुष्टि मिलती है कि मैं आज भी उनकी पत्नी हूं.

शादी का मतलब होता है, एक दूसरे में विश्वास, एक दूसरे के दुख-सुख में साथ निभाना. लेकिन आलोक न मेरे दुख के साथ है, न सुख में. छह साल से ऊपर होने को आये. मुझे एक शिकायत अपने ससुरालवालों से भी है. कभी उन्होंने भी यह नहीं जानना चाहा कि आखिर समस्या कहां है. कभी किसी ने मुझसे नहीं पूछा कि आखिर बात क्या है. एक अच्छा परिवार तलाक के बाद भी रिश्ता रखता है, मेरा तो तलाक भी नहीं हुआ. अब भी मैं उस परिवार की बहू हूं. कानूनी और सामाजिक तौर पर मेरे सारे अधिकार होते हुए भी मैंने उन लोगों से कुछ भी नहीं लिया. तब भी वे लोग मुझे ही दोष देते हैं.

यह सब लिख कर मेरा कतई यह इरादा नहीं कि लोग मुझसे सहानुभूति दिखायें, मुझ पर दया करें. मैं बस यह चाहती हूं कि लोगों को दूसरा पक्ष भी मालूम हो.

आज तक मैं चुप रही तो लोगों ने मेरे बारे में खूब अफवाहें उड़ायीं. मैं सुकून से अपना काम करना चाहती हूं और लोग मेरी व्यक्तिगत जिंदगी की बखिया उधेड़ना शुरू कर देते हैं. जीवन की हर छोटी-छोटी खुशी के लिए मैं तरसती रही. लोग कहते हैं, मैंने उनका इस्तेमाल किया पर मैं कहती हूं, एक कम उम्र लड़की को भोगने की जो लालसा (या लिप्सा) होती है, क्या उन्होंने मेरा इस्तेमाल नहीं किया? जिस लड़की को शादी करके लाये, उसे पहले ही दिन से एक अवैध संबंध ढोने पर मजबूर किया गया. मैं जानती हूं, इस तरह के वक्तव्य किसी मर्द को अच्छे नहीं लगेंगे पर मैं यह कहना चाहती हूं कि दुनिया के हर मर्द को अपनी मां, बहन, बेटी को छोड़ कर दुनिया की सारी औरतें रंडी क्यों नजर आती हैं? मर्द उसे किसी भी तरह से हासिल करना चाहता है. आखिर यह पुरुषवादी समाज है. मर्दो में एक बेहद क्रूर किस्म का भाईचारा है. काश, यह सामंजस्य हम औरतों में भी होता. यहां तो सबसे पहले एक औरत ही दूसरी औरत का घर तोड़ती है और टूटने पर सबसे पहले घर की औरतें ही उस औरत को दोष देना शुरू कर देती हैं. मेरी कई सहेलियों ने कहा-अरे यार, समझौता करके रह लेना था, हम लोग भी तो रह रहे हैं. वे यह नहीं जानतीं कि समझौता करके रहने की मैंने किसी भी औरत से ज्यादा कोशिश की, आखिरकार मैं थक गयी. शायद और समय तक रहती तो खुदखुशी कर लेती. मुझसे कई शादीशुदा औरतें इस बात के लिए डरती हैं कि कहीं मैं उनके पति को फंसा न लूं, वे मुझे दूसरी शादी की नेक सलाह देती हैं. अपना भला-बुरा मैं भी समझती हूं पर क्या ताड़ से गिरे, खजूर में अंटकेवाली स्थिति मुझे मान्य होगी? शादी करके घर बसाने और बचाने की मैंने हर संभव कोशिश की और न बचा पाने की असफलता ने मुझे भीतर तक तोड़ दिया. एक पराजय का बोध आज भी है.

आज हर कदम फूंक-फूंक कर रखती हूं, जैसे कोई दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है.

फिर भी मैं दिल से शुक्रगुजार हूं अपने पति की, उन्होंने जो भी मेरे साथ किया. अगर उन्होंने यह सब न किया होता तो आज मैं असीमा भट्ट नहीं होती.

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