Feminist Diary – Manisha Pandey

Manisha Pandey
Manisha Pandey

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कल मेरे एक दोस्‍त (जो बेशक पिछली पीढ़ी से ही ताल्‍लुक रखते हैं) ने कहा कि नई पीढ़ी के लड़के मुझे ज्‍यादा सेंसिबल, जेंडर सेंसिटिव और समझदार लगते हैं। पिछली पीढ़ी के पुरुष अपनी तमाम मार्क्‍सवादी छलांगों और उछालों और सैद्धांतिक दावों और विचारधाराओं और फलां और ढिमका के बावजूद अपनी निजी महफिलों में चार पैग के बाद स्त्रियों के बारे में निहायत ही अश्‍लील और गंदे ढंग से बातें किया करते थे। औरत को लेखिका-वेखिका बनाने के बदले बस इसी फिराक में रहते कि कैसे इसे बिस्‍तर तक ले आया जाए। होटल में बुलाते और कहते डाउचे वेले पहुंचा देंगे। लेकिन आजकल के लड़के ऐसी हरकतें नहीं करते। निजी दारू महफिल में भी लड़कियों को बिस्‍तर का सामान नहीं समझते।
एक बार ओम पुरी की पत्‍नी ने भी एक इंटरव्‍यू के दौरान मुझसे कहा था कि बॉलीवुड में एक बड़ा चेंज आया है। पुराने बुड्ढों की तरह नई पीढ़ी के डायरेक्‍टर्स वुमेनाइजर नहीं हैं। दे रिस्‍पेक्‍ट वुमन।
मैं सहमत हूं। सचमुच ये हो रहा है और होता दिख रहा है। नई पीढ़ी के लड़कों में भी काफी पेट्रिआर्कल एलिमेंट अभी बाकी हैं, लेकिन फिर भी वो बेहतर हैं। बहुत बेहतर हैं।
लड़कों, चलो आज तुम लोगों की थोड़ी तारीफ भी हो जाए। बुजुर्गों का सम्‍मान करो, लेकिन उनकी बनाई चिरकुट दुनिया को बदलो भी।
Hats of to you young boys and young grils. 🙂

……

इलाहाबाद में मेरा एक ब्‍वायफ्रेंड था। माय फर्स्‍ट ब्‍वॉयफ्रेंड। धुर क्रांतिकारी, पार्टीबाज। क्रांति और विचारों के नाम पर दिन भर आवारागर्दी करता था। कभी यहां बहस, कभी वहां गलचौर। सुबह उठकर ब्रश भी नहीं होता कि विचार-विमर्श शुरू हो जाता था। उसे विश्‍वास था कि वो अपना पूरा जीवन क्रांति को समर्पित करने वाला है। एक दिन बड़े नर्म, अकेले क्षण में उसने मुझसे कहा, मनीषा, तुम नौकरी करना और मैं पार्टी का होलटाइमर बन जाऊंगा।
मनीषा के नौकरी करने और उसके होलटाइमर होने का मतलब क्‍या था ?
– इसका मतलब था कि तुम नौकरी करने जाना।
– तुम घर पैसा कमाकर लाना।
– तुम दोनों वक्‍त का खाना बनाना।
– तुम घर के सारे काम और जिम्‍मेदारियां संभालना। मैं तो क्रांति कर रहा हूं। क्रांति का काम घर के कामों से ज्‍यादा महान काम है।
– तुम एक या दो बच्‍चे पैदा करना।
– तुम उन बच्‍चों को पालना, उनकी टट्टी साफ करना, उनके लिए रात भर जागना, उन्‍हें पढ़ाना-लिखाना। मैं तो महान कामों में लगा हुआ हूं।
– और तुम मुझ महान क्रांतिकारी को घर-परिवार का सुख और सुकून देना।
– पटना से थक-हारकर आऊं तो घर के छांह में आराम पाऊं। मैं महान काम जो कर रहा हूं।
– फिर जब पार्टी-सम्‍मेलन होगा तो वहां भी कढ़ाई-कलछुल लेकर तैयार रहना कॉमरेडों की सेवा करने के लिए। मैं भाषण दूंगा और तुम पूडि़या परोसना।
– घर पर आए दिन दस क्रांतिकारी होलटाइमर जमा हों तो उनका भी ख्‍याल रखना। हम बहस करेंगे, तुम हमारा पेट भरने का इंतजाम करना।
ये कोई खामख्‍याली नहीं है। मैंने सैकड़ों पार्टी होलटाइमरों को अपनी आंखों से ये करते देखा है और उनकी पत्नियों को उनकी जिंदगियां आसान बनाते हुए।
उस दिन मेरा दिल तो किया था कि तुरंत चप्‍पल उतारूं और उसकी पूजा कर दूं। बाहर का दरवाजा दिखाऊं तुरंत और बोलूं, खबरदार जो इस तरफ कभी मुड़कर भी देखा। लेकिन मैंने उससे कहा, नहीं अब उल्‍टा होगा। अब अगर क्रांति ही होनी है तो
– तुम नौकरी करना, मैं क्रांति करूंगी।
– तुम पू‍डि़या परोसना, मैं भाषण दूंगी।
– तुम बच्‍चे की पॉटी साफ करना, मैं परिवार, निजी संपत्ति और राज्‍य की उत्‍पत्ति पढूंगी।
– तुम घर संभालना और मैं पटना में मीटिंगें करूंगी।
चूल्‍हे में गए तुम और तुम्‍हारा विचार। बहुत उल्‍लू बना चुके तुम। अबकी बारी हमारी है।

…..

आज एक कैनेडियन स्‍टूडेंट से मुलाकात हुई, जो इंडियन मीडिया पर रिसर्च कर रही है। जेनिफर दीवानों की तरह अपना काम करती है, दुनिया घूमती है, उसे संगीत की कमाल की समझ है, एक साल एक ब्‍वॉयफ्रेंड के साथ रही। बात जमी नहीं, बैग उठाया और आगे की जिंदगी खोजने निकल पड़ी। वो कहीं भी जाकर बस जाना चाहती है और संसार देखना चाहती है। मैं एक डच लड़की को जानती हूं, जो जंगलों में घूम-घूमकर तितलियां इकट्ठा किया करती थी। एक और लड़की, जो ग्राफिक नॉवेल लिखने में ही मगन रहती थी। एक लड़की, जो दिन-रात पहाड़ चढ़ा करती थी।
और हिंदुस्‍तान में पैदा हुई, हमारे समाज में पली-बढ़ीं, हमारे घर, परिवार, रिश्‍तेदार, पड़ोस और आसपास की दुनिया की लड़कियां क्‍या करती हैं। और लड़कियां ही क्‍यों लड़के भी क्‍या करते हैं।
– पैदा होते हैं।
– फिर अच्‍छे से स्‍कूल में पढ़ने जाते हैं और क्‍लास में फर्स्‍ट आने के लिए मरे जाते हैं।
– इंटर पूरा होने से पहले कॅरियर की चिंता में घुलने लगते हैं। उस समय जीवन का मकसद सिर्फ अच्‍छे पैसे वाली एक अदद नौकरी होता है।
– नौकरी मिलते ही मां-बाप शादी के लिए हैरान-परेशान।
– कोई बेटी के लिए लड़का ढूंढ रहा है, कोई बेटे के लिए लड़की ढूंढ-ढूंढकर मरा जा रहा है।
– जाति-धर्म में वर-वधू तलाशकर मां-बाप उनकी जिंदगी को ठिकाने लगा देते हैं।
– शादी को दो-तीन साल हुए नहीं कि सास बोलेगी, गोदी में ललना खेले। तो भईया बच्‍चा-बच्‍चा-बच्‍चा।
– फिर बच्‍चे को पालो। फिर उसके लिए अच्‍छा स्‍कूल ढूंढो, उसके कॅरियर की चिंता करो, उसकी शादी के लिए वर तलाशो। और फिर उसकी भी शादी को दो साल हुए नहीं कि- अरे बेटवा, अब गोदी में एक ललना खेले। कहानी खत्‍म। पैसा हजम।
हमारे देश में कोई कल्‍पना भी नहीं कर सकता कि इस पैटर्न से इतर भी कोई जिंदगी हो सकती है। एक जिंदगी, जिसमें दूल्‍हा-दुल्‍हन ढूंढने का कोई आइडिया न हो, कोई ये सवाल भी न करे कि गोदी में ललना खेले, जमीन खरीदो, प्रॉपर्टी बनाओ टाइप चीजें एक्जिस्‍ट ही न करती हों, जीवन में कुछ शौक हों, कुछ काम हों, जिनके लिए जीने का जज्‍बा हो, घुमक्‍कड़ी हो, आवारापन हो, संगीत हो, सिनेमा की दीवानगी हो, किताबों के ढेर लगे हों, कुछ करने का जुनून हो। कुछ तो हो।
तितलियां बीनने और पहाड़ चढ़ने वाली लड़की को हमारे देश में लोग पागल समझेंगे। कहां से आई है, बौराई है क्‍या। पहाड़ चढ़ना भी कोई काम है भला।
मेरी दादी को वो लड़कियां मिल जाएं तो चट मंगनी पट ब्‍याह कराकर दो साल में गोदी में ललना खिलवा देंगी।
तौबा। कैसे विचित्र देश में रहते हैं हम

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