हमारे भीतर आग है
ऐसा हम कहते हैं
और बाहर सन्नाटा
जैसा दुनिया देखती है
और फिर हम कहते हैं
हम सही समय आने पर बोलेंगे
समय…सही समय
क्या वाकई कभी आता है
या फिर समय
आता नहीं
लाया जाता है
वो कौन सी समझदारी है
जो चुप्पी को बरकरार रखती है
वो कौन सा धैर्य है
जो आग को ठंडा नहीं होने देता
वो कौन से लोग हैं
जो सब जानते हैं पर चुप रहते हैं
वो कौन सी नस्ल है
जो ख़ुद को इंसान कहती हैं
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बहुत खूब मयंक …….कविता पढ़ कर गोरख पाण्डेय कि एक कविता याद आ गयी कुछ हिस्से यहाँ लिख रहन हूँ
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।
वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते है
गोरख पाण्डेय