मीडिया के नए राजकुमार हैं मेढ़क मोदी

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हम सभी ने वह परीकथा सुन रखी है जिसमें एक राजकुमारी मेढ़क को चूम लेती है और वह राजकुमार बन जाता है। कुछ उसी तरह के हालात इस वक्त मीडिया में दिख रहे हैं जो नरेंद्र मोदी को चूमने के लिए बेक़रार है ताकि उनमें राजकुमार जैसा ‘सौम्य आकर्षण’ स्थापित किया जा सके। इसके मायने सिर्फ घटिया अंदाज़ में मोदी की पीठ थपथपाना नहीं है बल्कि बेहद चालाकी से उनकी नुमाइंदगी को मुख्यधारा में लाना और सबकी मंज़ूरी दिलवाना है।  

बीते कुछ महीने से मुख्यधारा का मीडिया देश के तमाम हिस्सों में जाकर यह बताने में जुटा है कि अब मोदी को हिकारत की नज़र से नहीं देखा जाना चाहिए। वह राष्ट्रीय नेता बन चुके हैं। तर्क दिया जा रहा है कि मोदी तीन बार से लगातार गुजरात की गद्दी पर काबिज हुए हैं जोकि उनके ‘कुशल प्रशासक’ होने की ठोस दलील है। निवेश करने के लिए गुजरात कॉरपोरेट इंडिया का प्रिय ठिकाना बन चुका है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह कि मोदी ही वह शख्स हैं जिनमें तुरंत फैसले लेने की कुव्वत है, जबकि देश हमेशा सिर्फ कार्रवाई की प्रतीक्षा का राग अलापता है। और अब तो ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन ने भी उनके साथ रिश्ते ‘सामान्य’ कर लिए हैं।

मेनस्ट्रीम मीडिया में शेखर गुप्ता और राजदीप सरदेसाई जैसे कुछ नामचीन चेहरों से लेकर ‘दी इकोनॉमिस्ट’ और ‘टाइम’ जैसी अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएं मोदी का गुणगान कर रहे हैं। अखबार-पत्रिकाओं के पन्ने और स्याही यह बताने में बरबाद किए जा रहे हैं कि मोदी में फैसले करने की क्षमता है। इनमें से कुछ ने बड़ी चालाकी से 2002 के गुजरात नरसंहार का ज़िक्र करते हुए इशारा किया है कि मोदी को दंगों के लिए माफी मांग लेनी चाहिए क्योंकि एक बड़ी जीत उनका इंतज़ार कर रही है। शेखर गुप्ता बताते हैं कि कैसे मोदी राज में गुजरात के गांवों में संपन्नता और खुशहाली आई है। राजदीप सरदेसाई मोदी के स्पष्ट नेतृत्व और राज्य में सुशासन का ज़िक्र करने में नहीं अघाते हैं। झंडा उठाकर मधु पूर्णिमा किश्वर कहती हैं कि अहमदाबाद की सड़कों और कम रोशनी वाली गलियों में महिलाएं बेखौफ होकर घूम रही हैं। स्वघोषित टाइप सेक्यूलर विनोद मेहता ने कुछ वक्त पहले कहा था-‘इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात दंगे नरेंद्र मोदी की मिलीभगत का नतीजा थे, लेकिन उन्होंने सूबे को समृद्ध भी बनाया है।‘ जब श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स के भीतर मोदी भाषण दे रहे थे और बाहर प्रदर्शनकारियों की भीड़ इकट्ठा थी, तब एनडीटीवी एक ऑनलाइन पोल चला रहा था-‘रेट नरेंद्र मोदीज़ स्पीट एट एसआरसीसी।’ दर्जनों अखबार में इस तरह के लेख भी आए जिसके शीर्षक कुछ इस तरह थे-‘ क्या मोदी देश का नेतृत्व कर सकते हैं?’ इस तरह राष्ट्रीय स्तर पर मोदी को लेकर ‘सामान्यीकरण’ की प्रक्रिया पहले ही पूरी कर दी गई है। भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार अभी तक घोषित भी नहीं किया है।

बहरहाल, इस लेख का यह मकसद कतई नहीं है कि मुख्यधारा के इन उदारवादी पत्रकारों को मोदी के गुनाहों में शरीक कर दिया जाए। यहां तो उन कारणों की शिनाख्त करनी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है जहां तर्कों की ज़मीन सिकुड़ती जा रही है। इसी तरह के इशारे अरविंद विरमानी के हालिया संपादकीय लेख में भी मिलते हैं जो 18 अप्रैल 2013 को टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित हुआ था। अरविंद विरमानी यूपीए के पहले कार्यकाल में बतौर मुख्य आर्थिक सलाहकार अपनी सेवाएं दे चुके हैं। अपने लेख में विरमानी राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस और मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की तुलना तीन कसौटियों पर करते हैं, सामाजिक समावेश, आर्थिक वृद्धि और विकास और घरेलू व आंतरिक सुरक्षा।

बेहतर सामाजिक समावेश का श्रेय विरमानी कांग्रेस को देते हैं जबकि अन्य दो मोर्चों पर वह भाजपा की प्रशंसा करते हैं और खूब विश्वास दिखाते हैं। वह दोनों राजनीतिक दलों को शासन-प्रणाली और आर्थिक वृद्धि के मुद्दे पर अधिक ज़ोर लगाने की वकालत करते हैं। दिलचस्प है कि कांग्रेसनीत सरकार में मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुका एक अर्थशास्त्री दो मोर्चों पर मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा में ज्यादा विश्वास दिखा रहा है। यह तथ्य क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि नीति-निर्माताओं और मुख्यधारा की मीडिया में कमोबेश सहमति बन चुकी है कि देश कैसे चलना चाहिए।  

सवाल फिर भी वही है कि आखिर मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को कांग्रेस पर वरीयता क्यों दी जा रही है? जवाब सीधा है कि बीते कुछ साल में सिलसिलेवार घोटालों से मौजूदा सरकार पर आफत आई है, या मामला इससे भी आगे है? बिल्कुल, भाजपा खुद भी इस तरह के कई घोटालों में फंसी है, जैसे की कांग्रेस पार्टी। मेरी समझ से दो कारण हैं जिनकी वजह से कॉरपोरेट घराने मोदी के लिए माहौल बनाने में जुटे हुए हैं। पहला- मोदी ने जिस तेवर से विकास, सुशासन, शांति और आंतरिक सुरक्षा का मुद्दा उठाया और उसे परिभाषित किया है, उसमें उनकी सफलता की आहट मिलती है। ये मुद्दे मुख्यधारा का सवाल भी बन चुके हैं। शांति और सुरक्षा के मोर्चे पर बाहरी और आंतरिक खतरों को लेकर लगातार डर का एक माहौल तैयार कर दिया गया है। पाकिस्तान की ज़मीन से मुसलमानों और भीतर से माओवादियों को देश के लिए बड़ा खतरा बताया जा रहा है। इसीलिए इन मुद्दों पर घबराई मौजूदा सरकार ने अचानक कई लोगों की मृत्युदंड याचिकाएं खारिज कर दीं। सरकार को यह सिद्ध करना पड़ा कि वे इन मुद्दों को लेकर उतने ही प्रतिबद्ध हैं जितना कि नरेंद्र मोदी 2002 में थे। आंतरिक खतरे की यह समझ इस वक्त इतनी घर कर चुकी है कि रेडियो पर लगातार सरकार प्रायोजित संदेश सुनने को मिलते हैं- ‘पुलिस द्वारा किरायेदारों की पहचान ज़रूर कराएं और पड़ोसियों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करें।’ ऐसे माहौल में मोदी की “सख्त छवि’ कांग्रेस के ‘ढुलमुल’ रवैये पर भारी पड़ती दीख रही है।

मीडिया में एक और शब्द को आजकल खूब लोकप्रियता मिल रही है-‘सुशासन।’ मोदी के नेतृत्व में इस ‘सुशासन’ के क्या मायने हैं? यही ना कि मोदी सभी नौकरशाहों की अनाप-शनाप कागज़ी कार्रवाही को कम कर देंगे और पलक झपकते ही टाटाओं की नैनो फैक्ट्रीयां स्थापित हो सकेंगी। यह भी मुमकिन है कि मोदी के सुशासन में हज़ारों निवेशकों का झुंड गुजरात के हरे-भरे चारागाहों में आसानी से अपनी जगह बना पाएगा। (यहां अडानी और मुंधरा को मिली उन फटकार का ज़िक्र करना बेमानी होगा जो कानून और सामुदायिक अधिकारों का अतिक्रमण करने पर उन्हें अदालत ने लगाई थी।)

शहरी गुजरात में मूलभूत ढांचा, बंदरगाह, राजमार्ग और बिजली मोदी के सुशासन की पहचान बन चुके हैं, लेकिन तथ्य यह भी है कि हजारों मुसलमानों का नरसंहार उन्हीं के सुशासन में सुनियोजित तरीके से किया गया था। उन्हीं के सुशासन में फर्जी मुठभेड़ों खासकर मुसलमानों की हत्या करने की इजाज़त मिली थी। मोदी के सुशासन का मतलब है कि नौकरशाह उनसे डरें और बिना कोई सवाल किए वही करें जो नरेंद्र मोदी उन्हें आदेश दें। बिना किसी आदर्श और सिद्धांत के चल रही सरकारों का यह दौर कॉरपोरेट घरानों और मीडिया को खूब लुभा रहा है। मोदी के नए-नवेले सुशासन में कुपोषण और खून की कमी से जूझ रहे बच्चों और महिलाओं के लिए कोई जगह नहीं है। सूबे में दलितों-आदिवासियों की बदतर हो रही स्थिति पर कोई सवाल नहीं किया जाएगा। ‘विकास’ के नाम पर अपने घरों से विस्थापित कर दिए गए लोगों पर बात तो कतई नहीं होनी है।  

विकास और वृद्धि के लिए मोदी के पास अनोखा रामबाण है जहां शिक्षा जैसे बड़े मुद्दे वाउचर सिस्टम पर टिके हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाओं में सरकारी कटौती जारी है ताकि आम जनता इन सवालों से खुद ही जूझे। वृद्धि दर अचानक 5 फीसदी से नीचे पहुंच गई है, लेकिन ‘भय का माहौल’ बनाकर मोदी की नैया पार कराने के लिए गुणा-भाग जारी हैं। यूपीए की सरकार के साथ कॉरपोरेट घरानों और मीडिया की जलयात्रा जब तक आसानी से चली, मोदी को दूर रखा गया। चूंकि आर्थिक वृद्धि दर कम होने का खतरा मंडरा रहा है तो किसी भी कीमत पर मुनाफाखोरों को छूट नहीं मिल सकती। इसीलिए मोदी सरीखे ‘प्रतिबद्ध’ और ‘सख्त’ नेता को मैदान में उतार दिया गया है जो 10 फीसदी आर्थिक वृद्धि दर का काल्पनिक आंकड़ा हासिल करने में मददगार साबित हो सकते हैं। ऐसा होने से अगर हमारे नागरिक-राजनीतिक अधिकार कम होते हैं, तो होने दीजिए। मारे गए और विस्थापित लोगों को न्याय नहीं मिलता है तो कोई बात नहीं। लेकिन मोदी को लाने के लिए उनका ‘मानवीयकरण’ जरूरी है। मौत के घाट उतार दिए गए लोगों के अपराध में उनकी मिलीभगत को भूल जाइए। उन पन्नों को जला दीजिए जिनमें मानवीय पीड़ाओं की कहानियां दर्ज हैं। आम चुनावों में मोदी तभी मंजूर हैं जब दंगों की सारी यादें और निशान ज़ेहन से मिटा दिए जाएं।

 

अविनाश कुमार इतिहासकार हैं और दिल्ली में रहते हैं। उनका यह लेख इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित हुआ है। अनुवादः शाहनवाज़ मलिक

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