
Photo: Mukul Dube
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अनिल सिन्हा मेमोरियल फाउंडेशन की ओर से इंडिया इस्लामिक सेंटर में आयोजित दूसरे सालाना आयोजन में ‘मैपिंग एंगर: स्पाॅन्टेनियस प्रोटेस्ट ऐंड कम्पिलिसीट साइलेंस’ विषय पर जानी मानी एक्टिविस्ट लेखिका अरुंधति राय और पत्रकार अमित सेन गुप्ता के बीच विचारोत्तेजक बातचीत हुई। अमित ने शुरुआत बांग्ला देश से की, जहां आजकल 1971 में जनसंहार, बलात्कार और उत्पीड़न की घटनाओं को अंजाम देने वालों के खिलाफ जनता न्याय की मुहिम चला रही है और न्यायपालिका की ओर से उन्हें दंडित किया जा रहा है। कश्मीर और भारत की स्थितियों की बांग्ला देश से तुलना करते हुए अरुंधति ने कहा कि दोनों भिन्न तरह की चीजें हैं। बांग्ला देश के प्रसंग में भारत सरकार कह सकती है कि उसने मुक्ति योद्धाओं का साथ दिया। खुद भारत सरकार लिट्टे जैसे संगठनों की मदद करे तो ठीक, पर यहां कोई उसी तरह की मांग करता है तो उसे सरकार और मीडिया पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद कहता है। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में बहुत महत्वपूर्ण और दिलचस्प आंदोलन चल रहा है, जाहिर है लोगों की स्मृतियां 1971 से जुड़ी हुई हैं, पर स्मृतियां निर्मित भी की जाती हैं। स्मृति अपने आप में बहुत ही ट्रिकी विषय है।
अमित सेन गुप्ता ने जब पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सुहार्तो शासनकाल में इंडोनेशिया में जनसंहार रचाने वाले सालिम गु्रप का जिक्र किया, तो अरुंधति ने छूटते ही नेल्सन मंडेला का नाम लिया, जो एक दौर में दुनिया में प्रतिरोध के नायक थे, लेकिन उनकी सरकार बनने के बाद उसी सुहार्तो को वहां का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान दिया गया। और तो और उसी सुहार्तो के कारनामों पर जो फिल्म बनी, उसे धन फोर्ड फाउंडेशन की ओर से मिला। इसलिए नैतिकता की कोई स्पष्ट प्र्रवृत्ति नहीं है। अमित सेन गुप्ता ने 1971 के आसपास के सालों में दुनिया में छात्र-युवा आंदोलनों और संस्कृति-कला के क्षेत्र में उभरे आंदोलनों के इंद्रधनुषी आयामों की ओर ध्यान आकृष्ट किया, तो अरुंधति ने बीच में चुटकी लेते हुए कहा कि इंद्रधनुष में काला रंग नहीं होता। अमित ने स्पष्ट कि उनका आशय इस वक्त चल रहे विभिन्न किस्म के जनआंदोलनों से है, मसलन इसी वक्त में जबकि छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार है और वहां एक पुलिस अधिकारी सोनी सोढ़ी के गुप्तांग में पत्थर भरता है, जिसे यूपीए की सरकार गैलेंट्री एवार्ड देती है और तब कोई बड़ा आंदोलन नहीं होता, लेकिन दिल्ली गैंगरेप के बाद बाद दिल्ली ही नहीं देश के छोटे-छोटे कस्बों और शहरों में भी लोग सड़कों पर उतर पड़ते हैं, कई जगह बिना सैद्धांतिक राजनीतिक समझदारी के भी, तो इसे किस तरह समझा जाए?
अरुधंति ने कहा कि दिल्ली में बलात्कार के खिलाफ जो प्रोटेस्ट हुआ, वह महिला आंदोलनों और जेंडर स्टडी का विषय अधिक है। केरल की सूर्यनल्ली के मामले तथा कश्मीर, खैरलांजी, छत्तीसगढ़ में महिलाओं के साथ हुए बलात्कारों पर समाज के रुख पर उन्होंने सवाल उठाया। कला माध्यमांे में बलात्कार को उत्तेजना के एक विषय के तौर पर इस्तेमाल करने की मलयालम फिल्मों की आम प्रवृत्ति का उन्होंने उदाहरण दिया। बैंडिट क्वीन नाम की मशहूर फिल्म का जिक्र करते हुए अरुंधति ने कहा कि वहां फूलन देवी को एक फेमस विक्टिम आॅफ रेप के तौर पर पेश किया गया, एक फेमस बैंडिट के तौर पर नहीं। सोनी सोढ़ी का जिक्र करते हुए अरुंधति ने कहा कि दरअसल बलात्कार महिलाओं को आतंकित करने की एक स्ट्रैटजी है, बांग्ला देश, श्रीलंका हर जगह ऐसा ही किया गया।
प्रोटेस्ट के कमोडिटी बनने की प्रवृत्ति पर अरुधंति ने चिंता जाहिर की। उन्होंने चिदंबरम के बयान को याद किया जो कि गैंगरेप के तीन दिन बाद समाचार पत्रों के मुखपृष्ठ में छपा, जो गरीबों को ही अपराधी के तौर पर चिह्नित करता है। बातचीत में आम्र्स स्पेशल पावर एक्ट की चर्चा भी हुई। उमर अबदुल्ला और नीतीश कुमार द्वारा गुजरात सरकार की तारीफ के बरअक्स दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा गुजरात जनसंहार के दोषी के तौर पर मोदी के प्रतिवाद का अमित सेन गुप्ता ने जिक्र किया। संसद पर हमले और अफजल की फांसी का संदर्भ भी आया। अरुंधति ने सवाल उठाया कि 84 में 3000 सिक्खों, 1993 मंे मुंबई में तथा 2001 में गुजरात में हजारों मुसलमानों पर हमला किया जाना क्या लोकतंत्र पर हमला नहीं था? इसे लेकर इतनी घृणित चुप्पी क्यों है?
छत्तीसगढ़ में माओवादी आंदोलन का जिक्र करते हुए अरुधंति ने कहा कि वहां आदिवासी तो महज इसलिए लड़ रहे हैं कि जो है उसे उनके पास रहने दिया जाए, उसे भी न छिना जाए। अमितसेन गुप्ता ने पोस्को द्वारा महिलाओं और बच्चों पर बर्बर जुल्म ढाने की घटना की चर्चा की, जगतपुर, काशीपुर में वर्षों से चल रहे आंदोलनों की ओर ध्यान दिलाया और आदिवासी विद्रोहों की परंपरा से उनका संबंध जोड़ा। और सवाल किया कि क्या हम आज के दौर में किसी संघर्षों को लेकर कोई नई परिकल्पना कर सकते हैं?
अरुंधति राय ने कहा कि जब हम कहते हैं कि जनता खुद तय करेगी तो इसका मतलब ही है कि हम नहीं जानते कि वह प्रतिरोध किस तरह करेगी, उसका प्रतिरोध हिंसक होगा या अहिंसक, इसे उनके मुद्दे और जमीनी हकीकतें तय करेंगी। अरुंधति ने आंदोलनों के एनजीओकरण पर भी चिंता जाहिर की और कहा कि न केवल सरकार, बल्कि विपक्ष, एनजीओ और यहां तक कि अब लिटरेरी फेस्टिवल के जरिए साहित्य पर भी कारपोरेट का कब्जा हो चुका है। रिलायंस के 27 टीवी चैनल्स आ गए हैं। टाटा स्टील लिटरेरी फेस्टिवल में सलमान रुश्दी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को प्रायोजित करेगा और खुद जगदलपुर में आदिवासियों के दमन पर चुप्पी साध लेगा। उन्होंने आदिवासियों उनके जंगल और जमीन से बेदखल करने वाली कंपनियों द्वारा अस्पताल और लाॅ स्कूल खोलने पर भी सवाल उठाया। जिसे अमित सेन गुप्ता ने प्रतिरोध के संकट यानी क्राइसिस आॅफ रेसिस्टेंस के तौर पर चिह्नित किया। बातचीत आखिरकार यहां पहुंची कि इस वक्त कोई बड़ा विकल्प नहीं है, खुद मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियां भी सवालों के दायरे में हैं। अरुंधति ने कहा कि यह बड़ी बेईमानियांे और बड़ी चुप्पियों का दौर है। सारे बड़े विचार असफल हो चुके हैं। अब स्माॅल आइडिया का दौर है, जो न्याय और सुरक्षा के सवालों और संघर्षों में मौजूद है, वह दंतेवाड़ा में भी है और वह मारुति फैक्ट्री के मजदूरों के संघर्ष में भी है।
बातचीत के बाद श्रोताओं ने अरुंधति से सवाल भी किए। वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने स्माॅल थिंग्स के संबंध में उनके आइडिया के बारे में पूछा। समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंदस्वरूप वर्मा ने कहा कि सारी चीजों को नकार कर किस तरह के स्टेट की कल्पना की जा सकती है? युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने कहा कि चूंकि अरुंधति राय की बातों पर लोग गौर करते हैं और वे चाहते हैं कि वे किसी चीज के बारे में क्या सोचती हैं, इसलिए उन्हें इसका ध्यान रखना चाहिए। फिर उन्होंने दिल्ली गैंगरेप के बाद के आंदोलन में शामिल मध्यवर्गीय लोगों की दुनिया को अलगा कर देखे जाने पर सवाल खड़ा किया कि क्या वह अपने आप में स्वायत्त दुनिया है या उसमें से भी बहुत सारे लोग नीचे गिर रहे हैं और कुछ थोड़े से लोग किसी तरह उपर जा रहे हैं? क्या इस मध्यवर्गीय दुनिया से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए?
इस बातचीत से चित्रकार सादकेन की दो पेंटिग्स के पोस्टर जारी किए गए। वरिष्ठ चित्रकार और लेखक अशोक भौमिक ने इस मौके पर कहा कि कला और कला समीक्षा की दुनिया में सत्ता की संस्कृति हावी रही है, अनिल सिन्हा ने अपने लेखन और संगठन जसम के जरिए जिसका हमेशा विरोध किया। आज आम आदमी को चित्रकला से जिस तरह काट दिया गया, अनिल सिन्हा इससे चिंतित थे और यह चिंता उनकी कला समीक्षाओं में भी दिखती है। सत्ता की संस्कृति ने जिस तरह बंगाल के महाअकाल की त्रासदी को अपने चित्रों में दर्ज करने वाले जैनुल आबदीन को भुला दिया, उसी तरह सादकेन को भुला दिया। अशोक भौमिक ने कहा कि जैनुल आबदीन, चित्तो प्रसाद और सादकेन के लिए हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच कोई फर्क नहीं है, वे तीनों देशों की जनता के चित्रकार हैं। उन्होंने वादा किया कि अगले साल के आयोजन में जैनुल आबदीन के पोस्टर जारी किए जाएंगे। संचालन ऋतु सिन्हा ने किया।
(By Sudhir Suman. First published in Jan Sanskriti Manch.)
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